मत्स्य पालन मे पाली जाने वाली मछलियाँ
भारतीय प्रमुख शफर- इसकी संख्या तीन हैं-
(1) कतला
(2) रोहू
(3) मृगल
भारतीय प्रमुख शफर-कतला
वैज्ञानिक नाम. कतला कतला
सामान्य नाम. कतला, भाखुर
भौगोलिक निवास एवं वितरण
कतला एक सबसे तेज बढ़ने वाली मछली है यह गंगा नदी तट की प्रमुख प्रजाति है। भारत में इसका फैलाव आंध्रप्रदेश की गोदावरी नदी तथा कृष्णा व कावेरी नदियों तक है। भारत में आसाम बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश में सामान्यतया कतला के नाम से, उड़ीसा में भाखुर, पंजाब में थरला, आंध्र में बीचा, मद्रास में थोथा के नाम से जानी जाती है।
पहचान के लक्षण
शरीर गहरा, उत्कृष्ट सिर, पेट की अपेक्षा पीठ पर अधिक उभार, सिर बड़ा, मुंह चौड़ा तथा ऊपर की ओर मुड़ा हुआ, पेट ओंठ, शरीर ऊपरी ओर से धूसर तथा पार्श्व पेट रूपहला तथा सुनहरा, पंख काले होते हैं।
भोजन की आदत
यह मुख्यतः जल के सतह से अपना भोजन प्राप्त करती है। जन्तु प्लवक इसका प्रमुख भोजन है। 10 मिली मीटर की कतला (फाई) केवल यूनीसेलुलर, एलगी, प्रोटोजोअन, रोटीफर खाती है तथा 10 से 16.5 मिली मीटर की फ्राई मुख्य रूप से जन्तुप्लवक खाती है, लेकिन इसके भोजन में यदा-कदा कीड़ों के लार्वे, सूक्ष्म शैवाल तथा जलीय घास-पात एवं सड़ी-गली वनस्पति के छोटे दुकड़ों का भी समावेश होता है।
अधिकतम साईज
लंबाई1.8मीटर व वजन 60 किलो ग्राम ।
परिपक्वता एवं प्रजनन
कतला मछली 3 वर्ष में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। मादा मछली में मार्च माह से तथा नर में अप्रैल माह से परिपक्वता प्रारंभ होकर जून माह तक पूर्ण परिपक्व हो जाते है। यह प्राकृतिक नदी वातावरण में प्रजनन करती है। वर्षा ऋतु इसका मुख्य प्रजनन काल है।
अण्ड जनन क्षमता
इसकी अण्ड जनन क्षमता 80000 से 150000 अण्डे प्रतिकिलो ग्राम होती है, सामान्यतः कतला मछली में 1.25 लाख प्रति किलो ग्राम अण्डे देने की क्षमता होती है। कतला के अण्डे गोलाकार, पारदर्शी हल्के लाल रंग के लगभग 2 से 2.5 मि.मी. व्यास के जो निषेचन होने पर पानी में फूलकर 4.4 से 5 मि.मी. तक हो जाते है, हेचिंग होने पर हेचलिंग 4 से 5 मि.मी. लंबाई के पारदर्शी होते है।
आर्थिक महत्व
भारतीय प्रमुख शफर मछलियों में कतला मछली शीध्र बढ़ने वाली मछली है, सघन मत्स्य पालन मछलियों इसका महत्वपूर्ण स्थान है, तथा प्रदेश के जलाशयों एवं छोटे तालाबों में पालने योग्य है। एक वर्ष के पालन में यह 1 से 1.5 किलोग्राम तक वजन की हो जाती है। यह खाने में अत्यंत स्वादिष्ट तथा बाजारों में ऊंचे दाम पर बिकती है।
भारतीय प्रमुख शफर-रोहू
भारतीय प्रमुख शफर (2) रोहू
वैज्ञानिक नाम . लोबियो रोहिता
सामान्य नाम – रोहू
भौगोलिक निवास एवं वितरण
सर्वप्रथम सन् 1800 में हेमिल्टन ने इसकी खोज की तथा इसका नाम साइप्रिनस डेन्टी कुलेटस रखा बाद मेंनाम परिवर्तित होकर रोहिता बुचनानी, पुनः बदलकर लेबियो डुममेर तथा अंत मेंइसका नाम करण लोबियो रोहिता दिया गया। हेमिल्टन ने इस मछली को निचले बंगाल की नदियों से पकड़ा था। सन् 1925 में यह कलकता से अण्डमान, उड़ीसा तथा काबेरी नदी में तथा दक्षिण की अनेक नदियों एवं अन्य प्रदेशों में 1944 से1949 के मध्य ट्रांसप्लांट की गई तथा पटना से पाचाई झील बाम्बे में सन् 1947 में भेजी गई। यह गंगा नदी की प्रमुख मछली होने के साथ ही जोहिला सोन नदी में भी पायी जाती है। मीठे पानी की मछलियों में इस मछली के समान, प्रसिद्धी किसी और मछली ने नहीं प्राप्त की।
व्यापारिक दृष्टि में यह रोहू या रोही के नाम से जानी जाती है। इसकी प्रसिद्ध का कारण इसका स्वाद, पोषक मूलक आकार, देखने में सुन्दर तथा छोटे बड़े पोखरों में पालने हेतु इसकी आसान उपलब्धता है।
पहचान के लक्षण
शरीर सामान्य रूप से लंबा, पेट की अपेक्षा पीठ अधिक उभारी हुई, थुंथन झुका हुआ जिसके ठीक नीचे मुंह स्थिति, आंखें बड़ी, मुंह छोटा, ओंठ मोटे एवं झालरदार, अगल-बगल तथा नीचे का रंग नीला रूपहला, प्रजनन ऋतु में प्रत्येक शल्क पर लाल निशान, आंखें लालिमा लिए हुए, लाल-गुलाबी पंख, पृष्ठ पंख में12 से 13 रेजं (काँटें)होते हैं।
भोजन की आदत
सतही क्षेत्र के नीचे जल के स्तंभ क्षेत्र में उपलब्ध जैविक पदार्थ तथा वनस्पतियों के टुकड़े आदि इसकी मुख्य भोजन सामग्री हुआ करती है। विभिन्न वैज्ञानिकों ने इसके जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में भोजन का अध्ययन किया जिसमें (वै.मुखर्जी) के अनुसार योक समाप्त होने के बाद 5 से 13 मिलीमीटर लंबाई का लार्वा बहुत बारीक एक कोशिकीय, एल्गी खाता है तथा 10 से 15 मिली मीटर अवस्था पर क्रस्टेशियन, रोटिफर, प्रोटोजोन्स एवं 15 मिलीमीटर से ऊपर तन्तुदार शैवाल (सड़ी गली वनस्पति) खाती है।
अधिकतम साईज
अधिकतम लम्बाई 1 मीटर तक तथा इसका वजन विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा निम्नानुसार बताया गया है। वैज्ञानिक होरा एवं पिल्ले के अनुसार- प्रथम वर्ष में 675 से 900 ग्राम दूसरे वर्ष में 2 से 3 किलोग्राम, तृतीय वर्ष में 4 से 5 किलोग्राम।
परिपक्वता एवं प्रजनन
यह दूसरे वर्ष के अंत तक लैगिक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है, वर्षा ऋतु इसका मुख्य प्रजनन काल है, यह प्राकृतिक नदी परिवेश में प्रजनन करती है। यह वर्ष में केवल एक बार जून से अगस्त माह में प्रजनन करती है।
अण्ड जनन क्षमता
शारीरिक डीलडौल के अनुरूप इसकी अण्ड जनन की क्षमता प्रति किलो शरीर भार 2.25 लाख से 2. 80 लाख तक होती है। इसके अण्डे गोल आकार के 1.5 मि.मी. व्यास के हल्के लाल रंग के न चिपकने वाले तथा फर्टीलाइज्ड होने पर 3 मि.मी. आकार के पूर्ण पारदर्शी हो जाते है फर्टिलाईजेशन के 16-22 धंटों में हेचिंग हो जाती है (मुखर्जी 1955) के अनुसार हेचिंग होने के दो दिन पश्चात् हेचिलिंग के मुंह बन जाते है, तथा यह लार्वा पानी के वातावरण से अपना भोजन आरंभ करना प्रारंभ कर देता है।
आर्थिक महत्व
रोहू का मांस खाने में स्वादिष्ट होने के कारण खाने वालो को बहुत प्रिय है, भारतीय मेजर कार्प में रोहू सर्वाधिक बहुमूल्य मछलियों में से एक है, यह अन्य मछलियों के साथ रहने की आदी होने के कारण तालाबों एवं जलाशयों में पालने योग्य है, यह एक वर्ष की पालन अवधि में 500 ग्राम से 1 किलोग्राम तक वजन प्राप्त कर लेती है। स्वाद, सुवास, रूप व गुण सब में यह अव्वल मानी जाती है जिसके कारण बाजारों में यह काफी ऊँचे दामों पर प्राथमिकता में बिकती है।
भारतीय प्रमुख शफर-मृगल
भारतीय प्रमुख शफर (3)मृगल
वैज्ञानिक नाम . सिरहिनस मृगाला
सामान्य नाम . मृगल, नैनी, नरेन आदि
भौगोलिक निवास एवं वितरण
सर्वप्रथम वैज्ञानिकों ने इस मछली को सीप्रीनस मृगाला नाम दिया इसके पश्चात् नाम बदलकर सिरहीना मृगाला नाम दिया गया। यह भारतीय मेजर कार्प की तीसरी महत्वपूर्ण मीठे पानी में पाली जाने वाली मछली है, इस मछली को पंजाब में मोरी, उतर प्रदेश व बिहार में नैनी, बंगाल, आसाम में मृगल, उड़ीसा में मिरिकली तथा आंध्रप्रदेश में मेंरीमीन के नाम से जानते हैं, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ एवं शहडोल में इसे नरेन कहते हैं। मृगल गंगा नदी सिस्टम की नदियों व बंगाल, पंजाब, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश आदि की नदियों में पाई जाती है, अब यह भारत के लगभग सभी नदियों व प्रदेशों में जलाशयों एवं तालाबों में पाली जाने के कारण पाई जाती है।
पहचान के लक्षण
तुलनात्मक रूप से अन्य भारतीय कार्प मछलियों की अपेक्षा लंबा शरीर, सिर छोटा, बोथा थूथन, मुंह गोल, अंतिम छोर पर ओंठ पतले झालरहीन रंग चमकदार चांदी सा तथा कुछ लाली लिए हुए, एक जोड़ा रोस्ट्रल बार्वेल,(मूँछ) छोटे बच्चों की पूंछ पर डायमण्ड (हीरा) आकार का गहरा धब्बा, पेक्ट्रोरल, वेन्ट्रल एवं एनल पखों का रंग नारंगी जिसमें काले रंग की झलक, आखें सुनहरी।
भोजन की आदतें
यह एक तलवासी मछली है, तालाब की तली पर उपलब्ध जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों के मलवे,शैवाल तथा कीचड़ इसका प्रमुख भोजन है। वैज्ञानिक मुखर्जी तथा घोष ने (1945) में इन मछलियों के भोजन की आदतों का अध्ययन किया और पाया कि यह मिश्रित भोजी है। मृगल तथा इनके बच्चों के भोजन की आदतों में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जून से अक्टूबर माह में इन मछलियों के खाने में कमी आती देखी गई है।
अधिकतम साईज
लंबाई 99 से.मी. तथा वजन 12.7 कि.ग्राम, सामान्यतः एक वर्ष में 500-800 ग्राम तक वजन की हो जाती है।
परिपक्वता एवं प्रजनन
मृगल एक वर्ष में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। इसका प्रजनन काल जुलाई से अगस्त तक रहता है। मादा की अपेक्षा नर अधिक समय तक परिपक्व बना रहता है यह प्राकृतिक नदी वातावरण में वर्षा ऋतु में प्रजनन करती है। प्रेरित प्रजनन विधि से शीघ्र प्रजनन कराया जा सकता है।
अण्ड जनन क्षमता
वैज्ञानिक झीगंरन एवं अलीकुन्ही के अनुसार यह मछली प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में 1.25 से 1. 50 लाख अण्डे देती है, जबकि चक्रवर्ती सिंग के अनुसार 2.5 किलो की मछली 4.63 लाख अण्डे देती है, सामान्य गणना के अनुसार प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में 1.00 लाख अण्डे का आंकलन किया गया है। मृगल के अण्डे 1.5 मिली मीटर ब्यास के तथा निषेचित होने पर पानी मे फूलकर 4 मिलीमीटर ब्यास के पारदर्शी तथा भूरे रंग के होते हैं, हेचिंग अवधि 16 से 22 धंटे होती है।
आर्थिक महत्व
मृगल मछली भोजन की आदतों में विदेशी मेजर कार्प कामन कार्प से कुछ मात्रा में प्रतियोगिता करती है, किन्तु साथ रहने के गुण होने से सघन पालन में अपना स्थान रखती है जिले के लगभग सभी जलाशयों व तालाबों में इसका पालन किया जाता है। एक वर्ष की पालन अवधि में यह 500 से 800 ग्राम वजन प्राप्त कर लेती है अन्य प्रमुख कार्प मछलियों की तरह यह भी बाजारों में अच्छे मूल्य पर विक्रय की जाती है। राहू मछली की तुलना में मृगल की खाद्य रूपान्तर क्षमता तथा बाजार मूल्य कम होने के कारण आंध्रप्रदेश में सघन मत्स्य पालन में मृगल का उपयोग न कर केवल कतला प्रजाति 20 से 25 प्रतिशत तथा रोहू 75 से 80 प्रतिशत का उपयोग किया जा रहा है।
विदेशी प्रमुख शफर-सिल्वरकार्प
विदेशी प्रमुख सफर इसकी संख्या भी तीन हैं-
(1)सिल्वरकार्प
(2)ग्रासकार्प
(3)कामनकार्प
वैज्ञानिक नाम . हाइपोफ्थैलमिक्थिस माँलिट्रिक्स
सामान्य नाम . सिल्वर कार्प
भौगोलिक निवास एवं वितरण
सिल्वर कार्प मछली चीन देश की है, भारत में इसका सर्व प्रथम 1959 में प्रवेश हुआ। जापान की टोन नदी से उपहार के रूप में 300 नग सिल्वर कार्प फिंगरलिंग औसत वजन 1.4 ग्राम तथा औसतन 5 सेन्टीमीटर लंबाई व 2 माह आयु की मछली की एक खेप भारत में प्रथमतः केन्द्रीय अन्तः स्थलीय मछली अनुसंधान संस्थान कटक (उड़ीसा) से लाई गईं। इस मछली को लाने का उद्देश्य सीमित जगह से सस्ता मत्स्य भोजन प्राप्त करना था आज यह मध्यप्रदेश के अनेक तालाबों में पालन करने के कारण आसानी से उपलब्ध है।
पहचान के लक्षण
शरीर अगल बगल में चपटा सिर साधारण, मुंह बड़ा तथा निचला जबड़ा ऊपर की ओर हलका मुड़ा हुआ, आंखे छोटी तथा शरीर की अक्ष रेखा के नीचे, शल्क छोटे, पृष्ठ वर्ण का रंग काला धूसर तथा बाकी शरीर रूपहला (सुनहरा) रंग का होता है।
भोजन की आदतें
यह जल के सतही तथा मध्य स्तर से अपना भोजन प्राप्त करती है। वनस्पति प्लवक इसका मुख्य पसंदीदा भोजन है, इसका भोजन नली शरीर की लंबाई से लगभग 6 से 9 गुणा बड़ी होती है। इसके लार्वा (बच्चे) 12 से 15 मिलीमीटर आकार के फ्राई, जन्तुप्लवक को अपना भोजन बनाती है, तथा बाद में यह वनस्पति प्लवक को खाती है।
अधिकतम आकार
इसका वृद्धि दर भारतीय प्रमुख सफर मछलियों की अपेक्षा बहुत तीव्रतर है सन् 1992-93 में मुंबई के पवई लेक में आँक्सीजन की भारी कमी हो जाने के कारण बड़ी संखया में सिल्वर कार्प मछलियाँ मर गईं । इन मछलियों में अधिकतम आकार वाली सिल्वर कार्प की लंबाई 1.02 मीटर तथा वजन लगभग 50 किलोग्राम था इसकी वृद्धि प्रदेश में भी अच्छी देखी गई है। परन्तु इसकी उपस्थिति से कतला मछली की वृद्धि प्रभावित होती है।
परिपक्वता एवं प्रजजन
चीन मेंयह 3 वर्षो में प्रजनन हेतु परिपक्व होती है, तथा भारत में यह 2 वर्ष की आयु में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। स्ट्रिपिंग विधि द्वारा इसको प्रेरित प्रजनन कराया जाता है। इन मछलियों का प्रजनन काल, चीन में अप्रैल से प्रारंभ होकर जून तक, वर्षाकाल में नदियों में, जापान में मई जून से प्रारंभ होकर जुलाई तक, रूस में बसंत ऋतु में बहते हुए पानी की धारा में ऊपर की ओर आकर प्रजनन करती है,भारत में सन् 1961 में रूके हुए पानी पर मार्च के मध्य में परिपक्वता की स्थिति तथा जुलाई अगस्त में पूर्ण परिपक्व होने पर प्रजनन हेतु स्ट्रिप किया गया था। प्रदेश में इसका प्रजनन काल वर्षा ऋतु में माह जून से अगस्त तक होता है।
अण्ड जनन क्षमता
इसकी अण्ड जनन क्षमता औसतन लगभग एक लाख प्रति किलोग्राम भार होती है, अण्डे पानी में डूबने वाले होते हैं, इसका आकार 1.35 मिलीमीटर व निषेचित होने पर पानी में फूलकर 4 से 7 मिलीमीटर व्यास के होते हैं। हेचिंग 28 से 31 डिग्रीसेन्टी ग्रेड पर 18 से 20 घंटे पर होता है, हेचलिंग का आकार 4.9 मिली मीटर तथा योक सेक भारतीय प्रमुख सफर के सामान दो दिनों में समाप्त हो जाता है।
आर्थिक महत्व
शीघ्र वृद्धि वाली मछलियों की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए सन् 1959 में जापान से लाई जाकर कटक अनुसंधान केन्द्र में रखी गई। प्रयागों के आधार पर यह पाया गया है, कि भोजन संबंधी आदतों में कतला से समानता होते हुए भी पर्याप्त भिन्नताएं हैं। कार्प मछलियों के मिश्रित पालन विधि में सिल्वरकार्प एक प्रमुख प्रजाति के रूप में प्रयुक्त होती है। इसकी बाढ़ काफी तेज लगभग 6 माह के पालन में ही एक किलो ग्राम की हो जाती है। कतला की अपेक्षा सिल्वरकार्प में काटें कम होते हैं, भारतीय प्रमुख सफर की अपेक्षा इसका बाजार भाव कम है। स्वाद के कारण भारतीय प्रमुख सफर मछलियों की तरह मत्स्य पालकों ने इसे बढ़ावा नहीं दिया।
विदेशी प्रमुख शफर-ग्रासकार्प
विदेशी प्रमुख सफर 5. ग्रासकार्प
वैज्ञानिक नाम – टीनोफैरिंगोडोन इडेला
सामान्य नाम – ग्रासकार्प
भौगोलिक निवास एवं वितरण
साईबेरिया एवं चीन देश की समशीतोष्ण जलवायु की, पेसिफिक सागर में मिलने वाली नदियां ग्रासकार्प की प्राकृतिक निवास स्थान है। यह मछली समशीतोष्ण तथा गर्म जलवायु के कई देशों में प्रत्यारोपित की गई तथा अब यह उस देशों की प्रमुख भोजन मछली के रूप में जानी जाती भोज्य है। ग्रासकार्प मलू रूप से चीन देश की मछली है, इसे भारत में 22.11.1959 को हांगकांग से औसतन 5 माह आयु की 5.5 सेन्टीमीटर लम्बाईयुक्त औसतन वजन 1.5 ग्राम की 383 अंगुलिकाएं प्राप्त कर लाई गई तथा भारत के केन्द्रीय अंतःस्थली मछली अनुसंधान संस्थान कटक (उड़ीसा) के किला मत्स्य प्रक्षेत्र में रखी गई। यहां से आज यह भारत के समस्त प्रदेशों के जलाशयों एवं तालाबों में पाली जा रही है।
पहचान के लक्षण
शरीर लम्बा, हल्का सपाट मुंह चौड़ा तथा नीचे की ओर मुड़ा हुआ, निचला जबड़ा अपेक्षाकृत छोटा, आंखें छोटी, पृष्ठ पंख छोटा, पूंछी का भाग अगल बगल से चपटा तथा फैरेजियल दांत धांस पांत खाने के योग्य बने हुए। पीठ और आजू-बाजू का रंग हल्का रूपहला (सुनहरा चमकदार) तथा पेट सफेद।
भोजन की आदतें
यह मुख्यतः जलों के मध्य एवं निचले स्तरों में वास करती है, तथा आमतौर पर भोजन की तलाद्गा मछलियों तालाबों के तटबंधों के करीब तैरती फिरती है। 150 मिलीमीटर से अधिक लंबी ग्रास कार्प विभिन्न प्रकार कीजलीय एवं स्थलीय वनस्पतियां, आलू, अनाज, चावल की भूसी, गोभी तथा सब्जियों के पत्ते एवं तने को खाती है । विभिन्न वैज्ञानिकों के अध्ययन के दौरान पाया गया कि ग्रासकार्प का लार्वा केवल जन्तु प्लवक खाता है, तथा 2 से 4 से.मी. लम्बाई का बच्चा बुल्फिया वनस्पति खाता है। भारत मेंबड़ी ग्रास कार्प मछलियों पर देखा गया कि 1 किलोग्राम मछली प्रतिदिन 2.5 किलो से3 किलोग्राम तक हाईड्रिला वनस्पति को खा जाती है।
प्राथमिकता के आधार पर ग्रासकार्प द्वारा खाई जाने वाली जलीय वनस्पति निम्नानुसार हैः-
- हाईड्रिला 2. नाजास 3. सिरेटोफाईलम 4. ओटेलिया 5. बेलीसनेरिया 6.यूट्रीकुलेरिया 7. पोटेमाजेटान 8. लेम्ना 9. ट्रापा 10. बुल्फिया 11. स्पाईरोडेला 12. ऐजोला आदि
अधिकतम आकार
ग्रासकार्प की वृद्धि दर मुख्यतः संचयन की दर व भोजन की मात्रा जो उसे प्रतिदिन दी जाती है पर निर्भर करती है। इसकी वृद्धि काफी तेज होती है एक वर्ष में यह अममून 35 से 50 सेन्टीमीटर की लंबाई तथा 2.5 किलोग्राम से अधिक वजन की हो जाती है।
परिपक्वता एवं प्रजनन
ग्रास कार्प किस आयु तथा आकार में परिपक्व होती है यह भिन्नता उसके प्राकृतिक निवास तथा ट्रांसप्लांटेड निवास पर भिन्न भिन्न है। भारत वर्ष में ग्रास कार्प नर मछली 2 वर्ष में तथा मादा 3 वर्ष में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है ग्रास कार्प वर्ष में एक ही बार प्रजनन करती है, यद्धपि रूस में तापक्रम के उतार चढ़ाव के कारण एमुर नदी तंत्र में कुछ मछलियां पारी पारी से प्रजनन करती पाई गई है। आज भारत के लगभग सभी प्रदेशों में ग्रास कार्प का पोखरों में स्ट्रिपिगं विधि द्वारा प्रेरित प्रजनन कराया जा रहा है।
अण्ड जनन क्षमता
इसकी अण्डजनन क्षमता औसतन प्रति किलो ग्राम भार 75000 से 100000 अण्डे तक आंकी गई है।ग्रास कार्प के अण्डों का आकार गोलाकार 1.27 मिलीमीटर ब्यास जो फर्टीलाईज्ड होकर पानी में फूल कर 4.58मिलीमीटर ब्यास का हो जाता है। भारतीय परिस्थितियों के अनुसार हेचिंग 18 से 20 घंटे एवं 23 से 32 डिग्री सेंटीग्रेट पर होता है, हेचलिंग का आकार 5.86 से 6.05 मिलीमीटर आंका गया है। हेचिंग होने के 2 दिन बाद पीतक थैली (याँक सेक) पूर्णतः समाप्त हो जाता है।
आर्थिक महत्व
ग्रास कार्प मलू रूप से चीनी देश की मछली है, तथा जलीय परिवेश मेंखर-पतवार के नियंत्रण के लिए यह विश्व के कई देशों में ले जाई गई हैं प्रयोगों के आधार पर यह देखने में आया कि कार्प मछलियों के मिश्रित/सधन पालन प्रणाली के अंतर्गत इसका समावेश काफी लाभकारी होता है एवं जल पौधों के नियंत्रण केलिए यह काफी उपयोग है। संवर्धन तालाबों में तालाब के क्षेत्र फल के आधार पर इसकी संचयन संख्या निर्धारित की जाती है। एक वर्ष के पालन अवधि में उपलब्ध कराए गए भोजन के अनुरूप यह 2 से 5 किलोग्राम की हो जाती है। ग्रास कार्प का बाजार भाव अच्छा है, और ग्राहक इसे खरीदना पसंद करते हैं।
विदेशी प्रमुख शफर-कामन कार्प
विदेशी प्रमुख सफर 6. कामन कार्प
वैज्ञानिक नाम. साइप्रिनस कार्पियो
सामान्य नाम . कामन कार्प, सामान्य सफर, अमेरिकन रोहू
भौगोलिक निवास एवं वितरण
कॉमन कार्प मछली मूलतः चीन देश की है केस्पियन सागर के पूर्व में तुर्किस्तान तक इसका प्राकृतिक घर है। भारत वर्ष में कॉमन कार्प का प्रथम पदार्पण मिरर कार्प उपजाति के रूप में सन्1930 में हुआ था, इसके नमूने श्रीलंका से प्राप्त किए गए थे। इसे लाकर प्रथमतः ऊटकमंड (उंटी) झील में रखा गया था, देखतेदेखते मिरर कार्प देश के पर्वतीय क्षेत्रों की एक जानी पहचानी मछली बन गई। इस मछली को भारत में लाने का उद्देश्य ऐसे क्षेत्र जहां तापक्रम बहुत निम्न होता है, वहां भोजन के लिए खाने योग्य मछली की बृद्धि केलिए लाया गया था।कॉमन कार्प की दूसरी उपजाति स्केल कार्प भारत वर्ष में पहली बार सन् 1957 में लाई गई। जब बैंकाक से कुछ नमूने प्राप्त किए गए थें परिक्षणों के आधार पर यह शीघ्र स्पष्ट हो गया कि यह एक प्रखर प्रजनक है, तथा मैदानी इलाकों में पालने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। आज स्केल कार्प देश के प्रायः प्रत्येक प्रान्तों म0प्र0 एवं शहडोल के तालाबों में पाली जा रही है।
पहचान के लक्षण
शरीर सामान्य रूप से गठित, मुंह बाहर तक आने वाला सफर के समान, सूंघों (टेटेकल) की एक जोड़ी विभिन्न क्षेत्रों में वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर इसकी शारीरिक बनावट में थोड़ा अंतर आ गया है, अतः विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में यह एशियन कार्प, जर्मन कार्प, यूरोपियन कार्प आदि के नाम से विख्यात है।
साधारण तौर पर कॉमनकार्प की निम्नलिखित तीन उपजातियाँ उपलब्ध है-
- स्केल कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार कम्युनिस) इसके शरीर पर शल्कों की सजावट नियमित होती है।
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मिरर कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार स्पेक्युलेरिस) इसके शरीर पर शल्कों की सजावट थोड़ी अनियमित होती है तथा शल्कों का आकार कहीं बड़ा व कहीं छोटा तथा चमकीला होता है। अंगुलिका अवस्था मछलियों एक्वेरियम हेतु यह एक उपयुक्त प्रजाति है।
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लेदर कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार न्युडुस) इसके शरीर पर शल्क होते ही नहीं है अर्थात् इसका शरीर एकदम चिकना होता है।
भोजन की आदतें
यह एक सर्वभक्षी मछली है। कॉमन कार्प मुखयतः तालाब की तली पर उपलब्ध तलीय जीवाणुओं एवं मलवों का भक्षण करती है। फ्राय अवस्था में यह मुख्य रूप से प्लेक्टान खाती है। कृत्रिम आहार का भी उपयोग कर लेती है।
अधिकतम आकार
भारत वर्ष में इसकी अधिकतम साईज 10 किलोग्राम तक देखी गई है। इसका सबसे बड़ा गुण यह है, कि यह एक समशीतोष्ण क्षेत्र की मछली होकर भी उन परिस्थितियों में निम्न तापक्रम के वातावरण में संतोषप्रदरूप में बढ़ती है, एक वर्ष की पालन में यह 900 ग्राम से 1400 ग्राम तक वजन की हो जाती है।
परिपक्वता एवं प्रजनन
भारत वर्ष में लाये जाने के बाद तीन वर्ष की आयु में अपने आप ही ऊंटी झील में प्रजनन किया। गर्म प्रदेशों में 3 से 6 माह में ही लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। यह मछली बंधे हुए पानी जैसे- तालाबों,कुंडो आदि में सुगमता से प्रजनन करती है। यह हांलाकि पूरे वर्ष प्रजनन करती है, परन्तु मुख्य रूप से वर्ष में दो बार क्रमश: जनवरी से मार्च में एवं जुलार्इ्र से अगस्त में प्रजनन करती है, जबकि भारतीय मेजर कार्प वर्ष मछलियां केवल एक बार प्रजनन करती है। कॉमन कार्प मछली अपने अण्डे मुख्तय: जलीय पौधों आदि पर जनती है,इसके अण्डे चिपकने वाले होने के कारण जल पौधों की पत्तियों, जड़ों आदि से चिपक जाते है, अण्डों का रंगमटमैला पीला होता है।
अण्ड जनन क्षमता
कॉमन कार्प मछलियों की अण्डजनन क्षमता प्रति किलो भार अनुसार 1 से 1.5 लाख तक होती है, प्रजनन काल के लगभग एक माह पूर्व नर मादा को अलग-अलग रखने से वे प्रजनन के लिए ज्यादा प्रेरितहोती है, सीमित क्षेत्र में हापा में प्रजनन कराने हेतु लंबे समय तक पृथक रखने के बाद एक साथ रखना प्रजनन के लिए प्रेरित करता है, अण्डे संग्रहण के लिए ऐसे हापों तथा तालाबों में हाइड्रीला जलीय पौधों अथवा नारियल की जटाओं का उपयोग किया जाता है। कॉमन कार्प मछलियों में निषेचन, बाहरी होता है, अण्डों के हेचिंग की अवधि पानी के तापक्रम पर निभर्र करती है, लगभग 2-6 दिन हेचिंग में लगते है तापक्रम अधिक हो तो 36 घंटों मेंही हेचिंग हो जाती है। घंटे में याँक सेक समाप्त होने के पश्चात सामान्य रूप से घूमना फिरना शुरू कर पानी से अपना भोजन लेते हैं। 5 से 10 मिलीमीटर फ्राय प्रायः जंतु प्लवक को अपना भोजन बनाती है तथा 10-20 मिलीमीटर फ्रायसाइक्लोप्स, रोटीफर आदि खाती है।
आर्थिक महत्व
कॉमन कार्प मछली जल में घुमिल आक्सीजन का निम्न तथा कार्बन डाईआक्साईड की उच्च सान्द्रता अन्य कार्प मछलियों की अपेक्षा बेहतर झेल सकती है, और इसलिए मत्स्य पालन के लिए यह एक अत्यन्त ही लोकप्रिय प्रजाति है। एक वर्ष में यह औसतन 1 किलोग्राम की हो जाती है। यह आसानी से प्रजनन करती है इसलिए मत्स्य बीज की पूर्ति में विशेष महत्व है।
प्रारभ में जब यह मछली स्थानीय बाजारों में आई तब लोग इसे अधिक पसंद नहीं कर रहे थे, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता अब देश के सभी प्रदेशों में भाज्य मछली के रूप में अच्छी पहचान बन गई है। कॉमन कार्पमछलियों का पालन पिजं रों मेंभी किया जा सकता है। मौसमी तालाबों हेतु यह उपयुक्त मछली है। परन्तु गहरे बारहमासी तालाबों में आखेट भरे कठिनाई तथा नित प्रजनन के कारण अन्य मछलियों की भी बाढ़ प्रभावित करने के कारण इसका संचय करना उपयुक्त नहीं माना जाता है।
मत्स्य पालन के लिए सबसे उपयुक्त है यह समय। जाने अधिक, इस विडियो को पढ़कर
स्त्रोत – मछुआ कल्याण और मत्स्य विकास विभाग,मध्यप्रदेश सरकार
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