परिचय
भूमि की ऊपरी सतह की मिट्टी का एक बार क्षरण या अत्यधिक विदोहन होने पर इसे पुनः उपजाऊ बनाने में काफी समय लग जाता ही| मिट्टी ऐसा प्राकृतिक संसाधन है जिसका नवीनीकरण यदि असम्भव नहीं पर मुशिकल अवश्य है| इस प्राकृतिक संसाधन को हमेशा से पर्यावरणीय एवं सामाजिक उथल-पुथल ने काफी नुकसान पहुँचाया है| मानव प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने का मुख्य कारक है| जिसके फलस्वरूप आज पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है व भूमि की उत्पादन क्षमता भी प्रभावित हो रही है|
हमारे देश में प्राचीन काल से ही कृषि में फसलों एवं पशुओं के साथ वृक्षों को सम्मिलित किया जाता रहा है| कृषि क्षेत्र में कृषि-वानिकी एक महत्वपूर्ण कृषि पद्धति थी, जिसका आज भी उतना ही महत्व है| आज के आधुनिक युग में भी कृषि-वानिकी द्वारा आम किसान संतुलन लाभ उठा सकते हैं|
बढ़ती हुई जनसंख्या एवं बढ़ते हुए शहरीकरण के कारण कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल में कमी एवं बढ़ते हुए कृषि रसायनों के कारण भूमि की उपजाऊ क्षमता में गिरावट के कारण न केवल भविष्य में मनुष्य के लिए खाद्यान की समस्या हो सकती है बल्कि पशुओं के लिए चारागाह व चारे के आभाव व ईंधन के लिए लकड़ी की कमी की संभावना भी प्रबल है| कृषि-वानिकी द्वारा न केवल खेती योग्य भूमि एवं जंगलों पर बढ़ती हुई जनसंख्या का दबाव कम किया जा सकता है बल्कि इसके द्वारा मृदा-संरक्षण के आलावा पर्यावरण प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है|
कृषि-वानिकी
कृषि-वानिकी भू-उपयोग की वह पद्धति है जिसके अंतर्गत सामाजिक तथा पारिस्थितिकीय रूप से उचित वनस्पतियों के साथ-साथ कृषि फसलों या पशुओं को लगातार या क्रमबद्ध ढंग से शामिल किया जाता है| कृषि-वानिकी में खेती योग्य भूमि पर फसलों के साथ-साथ वृक्षों को भी उगाया जाता है| इस प्रणाली द्वारा उत्पाद के रूप में ईंधन की लकड़ी, हरा चारा, अन्न, मौसमी फल इत्यादि आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं| इस प्रणाली को अपनाने से भूमि की उपयोगिता बढ़ जाती है|
कृषि-वानिकी की उपयोगिता
मानव जीवन के लिए संतुलित पर्यावरण आवश्यक है| वनों की कटाई, पानी की कमी विभिन्न कारकों द्वारा मृदा का क्षरण होने से पर्यावरण-संतुलन निरंतर बिगड़ता जा रहा है| इसके लिए आवश्यक है की ऐसी कृषि पद्धति अपनाई जाए जिससे खाद्यान, लकड़ी व चारा इत्यादि की पूर्ति भी हो जाए और पर्यावरण का संतुलन भी बना रहे|
उपरोक्त सन्दर्भ में कृषि-वानिकी की महत्ता वर्तमान समय में काफी बढ़ गई है| इसके द्वारा भूमि की उर्वरा क्षमता बढ़ाई जा सकती है, सिमित भूमि से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है, पर्यावरण संतुलन बनाए रखा जा सकता है, ईंधन एवं इमारती लकड़ी प्राप्त की जा सकती है, बंजर भूमि का सुधार किया जा सकता है, व पशुओं को वर्ष भर हरा चारा मिल सकता है| इसके आलावा उद्योगों हेतु कच्चा माल का उत्पादन किया जा सकता है|
वृक्ष ग्रीष्म ऋतु में भूमि का तापमान बढ़ने से रोकते हैं जिससे भूमि में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट होने बचाया जा सकता है जो हमारी फसलों के लिए लाभकारी होते हैं| वृक्ष अपनी लंबी व गहरी जड़ों के द्वारा भूमि की निचली सतह से पोषक तत्वों को ग्रहण करके, भूमि की ऊपरी सतह पर लाने में मदद करते हैं| यदि सूखा, ओलावृष्टि, आँधी, तूफान, इत्यादि प्राकृतिक प्रकोपों के कारण सालाना फसल नष्ट हो जाती है तो भी वृक्षों द्वारा हमें कुछ न प्राप्त हो सकता है|
कृषि-वानिकी के सिद्धांत
कृषि-वानिकी को अपनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किस प्रकार के पेड़ वहां की जलवायु के अनुकूल हैं व इनकी सामाजिक आवश्यकता कितनी है और पेड़ों के साथ किस प्रकार की फसल उचित व उपयोगी होगी इत्यादि| कृषि-वानिकी को सफल बनाने हेतु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जलवायु एवं भूमि के अनुसार पेड़ एवं फसल का चुनाव किया जाए | पेड़ एवं फसल भी एक दूसरे के अनुरूप हों जिससे उन्हें एक साथ उगने पर अधिक उत्पादन मिल सके| पेड़ों व फसलों के बीच पोषक तत्वों, वायु व सौर उर्जा के लिए प्रतिस्पर्धा कम करने के दृष्टिकोण से समय-समय पर पेड़ों को काटते-छांटते रहना चाहिए| इस सब के लिए किसानों को मिट्टी, जल एवं वृक्षों सम्बन्धी अच्छी जानकारी होना जरुरी है|
शोधकर्ताओं के अध्ययन द्वारा यह ज्ञात है कि भारत के अनेक प्रान्तों (पंजाव, हरियाणा एवं पशिचमी उत्तर प्रदेश) में कृषि-वानिकी से सामान्य कृषि की अपेक्षा 20% अधिक उत्पादन मिला है| इन प्रदेशों में पॉपलर इत्यादि को मेढ़ों पर लगाने से फसल व लकड़ी कुल उतपादन सामान्य कृषि से अधिक था|
कृषि-वानिकी पद्धति में सामान्य कृषि की अपेक्षा अधिक उत्पादन होता है क्योंकि बहुवर्षीय पेड़ों में प्रकाश-संशलेषण की अधिक क्षमता होती है| बहुवर्षीय पेड़, फसलों को उपयुक्त जलवायु प्रदान करते हैं| बहुवर्षीय पेड़ों की जड़ें बहुत गहराई तक जाती हैं और इस कारण पेड़ भूमि की निचली सतहों से पोषक तत्वों को ग्रहण करके पोषक तत्वों का पुनः चक्रण करते हैं|
सामान्यतः देखा गया है कि जब इमारती लकड़ी देने वाले पेड़ों को एक साथ उगाया जाता है, तो फसल उत्पादन पर प्रतिकूल पड़ता है| ऐसा भी देखा गया है कि कभी-कभी फसल की पैदावार 50 प्रतिशत तक घट जाती है, जिसका कारण यह है कि फसलों एवं पेड़ों के बीच, प्रकाश, नमी व पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा होती है| उचित प्रकार के पेड़ों एवं फसलों के चुनाव द्वारा इस प्रतिस्पर्धा को कम किया जा सकता है| नाइट्रोजन स्थिरीकरण वाले पेड़ों को कृषि-वानिकी पद्धति में शामिल करने से भूमि की नाइट्रोजन को बढ़ाया जा सकता है, जिससे भूमि की उर्वरा क्षमता में सुधार होता है| कृषि-वानिकी द्वारा उत्पादन क्षमता में वृद्धि होने से मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः ही कर लेता है| कृषि-वानिकी पद्धति, सामान्य कृषि प्रणाली से अधिक लाभदायक एंव महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस प्रणाली में लगाये गए वृक्ष फल, लकड़ी एवं चारा प्रदान करें के साथ-साथ भूमि के क्षरण को भी रोकते हैं और फसलें किसान की आर्थिक स्थिति को सुधारने में मदद करती हैं|
कृषि-वानिकी एवं औद्योगिकीकरण
हमारे देश में अनेक उद्योग-धंधे वृक्षों व वानस्पति सम्पदा पर निर्भर हैं, जिन्हें यह कच्चा माल प्रदान करते हैं| भारतीयवर्ष में वृक्षों द्वारा उत्पादित लकड़ी का अधिकांश भाग ईधन के लिए उपयोग किया जाता है| कृषि-वानिकी में फसलों/चारे के साथ-साथ पेड़ों इत्यादि को उगाने से खाद्यान एवं पशुओं की जरूरतों के आलावा लकड़ी की भी आपूर्ति हो जाती है|
कृषि-वानिकी प्रणाली प्रणाली का अंतर्गत वृक्षों पर आधारित अनेक औद्योगिक इकाइयां मानव को रोजगार प्रदान करने के साथ-साथ उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी करती है| कृषि-वानिकी से सम्बन्धित प्रमुख उद्योग-रोज़गार निम्न हैं:
कागज उद्योग: इस उद्योग में विभिन्न प्रकार के पौधों जैसे-बांस, पॉपलर, चीड़ इत्यादि का प्रयोग किया जाता है|
पत्तल उद्योग : इस उद्योग में ढाक/पलाश के पत्तों का प्रयोग किया जाता है| यह वृक्ष बंजर भूमि में भी उगाया जा सकता है|
औषधि उद्योग: विभिन्न प्रकार के औषधीय वृक्षों को भी कृषि-वानिकी के अंतर्गत लगाया जाता है| जिनमें आंवला, बेल, अशोक, अर्जुन, नीम करंज, हरड़, बहेड़ा इत्यादि प्रमुख हैं|
माचिस उद्योग: माचिस की तीली बनाने में प्रयोग किये जाने वाले वृक्षों में सेमल एवं पॉपलर प्रमुख हैं, इन्हें भी कृषि-वानिकी में उगाया जाता है|
लकड़ी उद्योग : कृषि-वानिकी पद्धति के अंतर्गत उगाये जाने वाले पौधों से ईधन के साथ-साथ बहुयोगी इमारती लकड़ी भी प्राप्त होती अहि, जिसका प्रयोग फर्नीचर, नाव, पानी के जहाज, खिलौनों इत्यादि में किया जाता है| इसमें साल, सागौन, शीशम, चीड़ इत्यादि की लकड़ियाँ प्रमुख रूप से उगायी की जाती हैं|
पर्यावरण सुरक्षा एवं भूमि संरक्षण : पर्यावरण-संतुलन को बनाये रखने के लिए वृक्षारोपण बहुत जरुरी है| कृषि-वानिकी प्रणाली के अंतर्गत लगाये गए वृक्ष वायुमंडल को स्वच्छ बनाने में मदद करते हैं, ये वृक्ष वायुमंडल में फैली प्रदूषित एवं हानिकारक गैसों की मात्रा को कम करके पर्यावरण-संतुलन को बनाये रखते हैं| इसके साथ-साथ वृक्ष मृदा-अपरदन (मिट्टी का कटाव) को भी रोकते हैं| यह मिट्टी की उर्वरा-क्षमता को बढ़ाने एवं बनाए रखने में भी मददगार साबित हुए हैं|
कृषि-वानिकी हेतु वृक्ष का चुनाव
इस कार्य को करते समय ध्यान रखना चाहिये कि पेड़ तेज गति से वृद्धि (वार्षिक दर 2-3 मीटर) करने वाला होना चाहिए| पेड़ गहराई क्षमता होनी चाहिए| पेड़ में फल के साथ-साथ हरा चारा देने की क्षमता हो तो अधिक बेहतर है| पेड़ का मुख्य तना सीधा व गोल तथा पार्शव शाखाएं कम होनी चाहिए| पेड़ में वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर करने की क्षमता भी हो तो और अच्छा है| पेड़ इमारती लकड़ी एवं ईधन प्रदान करने वाला होना चाहिए व पेड़ में शाखा पुनुरुत्पादन आवश्यक है| इन बातों का ध्यान रखकर आम किसान कृषि-वानिकी से भरपूर लाभ उठा सकते हैं|
कृषि-वानिकी पद्धति के घटकों के आधार पर निम्न प्रकारों में विभाजित किया गया है:
- वन-चारागाह/पशु (पेड़+चारागाह+पशु) प्राणाली
- कृषि- वन-चारागाह/पशु (फसलें+पेड़+चारागाह+पशु) प्राणाली
- कृषि- वन(फसलें+ईधन/चार वाले पेड़) प्राणाली
- कृषि- फल (फसलें+फलदार पेड़) प्राणाली
- फल कृषि- वन(फल+ फसलें+ईधन/चार वाले पेड़) प्राणाली
- फल -वन(फल+ईधन/चार वाले पेड़) प्राणाली
- कृषि- वन-मीन पालन (फसलें+पेड़+मीन) प्राणाली
इन सभी प्रणालियों का उद्देश्य भूमि का समुचित उपयोग एवं प्रबन्धन है| इन पद्धतियों द्वारा फलदार वृक्ष/चारा. खाद्यान एवं ईधन की प्राप्ति के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ एवं इमारती लकड़ियाँ भी मिलती है|
कृषि-वानिकी का भविष्य बहुत उज्जवल है| कृषि-वानिकी अपनाकर कृषि उत्पादन को कई गुना बढ़ाया जा सकता है| पेड़ों की समय-समय पर कटाई-छांटाई करके जलाने के लिए लकड़ी, पशुओं के लिए हरा तथा नीचे बिछाने के लिए आवश्यक सामग्री प्राप्त की जा सकती है| कृषि-वानिकी से न केवल भूमि की जल-धारण क्षमता बढ़ती है अपितु भूमि और अधिक उपजाऊ हो जाती है| फलीदार समूह के वृक्ष भूमि में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक होते हैं| आजकल कई क्षेत्रों में कृषि-वानिकी द्वारा कृषि मजदूरों को सतत रोजगार भी प्रदान किया जा रहा है| इस प्रणाली को अपनाने से भूमि की उपयोगिता व महत्ता बढ़ती जाती है और किसी एक फसल के नष्ट हो जाने पर भी अन्य फसलों से उत्पादन व आमदनी के द्वार खुले रहते हैं जिससे कि सालाना फसलों के मुकाबले कृषकों को खेती में जोखिम व नुकसान की सम्भावनाएं न्यूनतम हो जाती हैं|
स्रोत: उत्तराखंड राज्य जैव प्रौद्योगिकी विभाग; नवधान्य, देहरादून