भीमराज राय किसान मछली पालन में बनायी अलग पहचान
खेती अब घाटे का व्यवसाय नहीं रही़ इसमें नये प्रयोग की पूरी संभावना हैं इन संभावनाओं की बदौलत कई किसानों ने मिसाल कायम की हैं उन्होंने ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया और दूसरे किसानों के प्रेरक बऩे ऐसे ही किसानों में हैं भोजपुर जिले के पीरो प्रखंड के देवचंदा गांव के भीमराज राय़ 55 वर्षीय भीमराज राय धरती से सोना उपजाने में लगे हैं|अपनी बीस एकड़ जमीन में धान, गेहूं, मक्का एवं दलहन, तिलहन की खेती के साथ बागवानी, पशुपालन और मछली पालन भी करते हैं| बैगन, गोभी, टमाटर, मटर तथा ब्रोकली के उत्पादन में उन्हें खास सफलता मिली हैं वह एक सजग किसान हैं केंद्र और राज्य सरकार के कृषि विभागों की योजनाओं की वह जानकारी नियमित रूप से प्राप्त करते हैं और फिर उनका लाभ लेने की अपनी योजना बनाते हैं| उनकी इस सजगता ने दूसरे किसानों को भी राह दिखायी हैं कृषि वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में उन्होंने पारंपरिक एवं आधुनिक विधि को अपनाया़ उन्होंने इस क्षेत्र में एक मुकाम हासिल की हैं|
भीमराज राय एक एकड़ जमीन में में तालाब बना कर मछली पालन कर रहे हैं|तालाब में लगभग छह फीट पानी बनाये रखने की उन्होंने व्यवस्था की है, ताकि मछली पालन के लिए आदर्श स्थिति बनी रह़े वह छह प्रकार की मछलियां पालते हैं|इनमें एक है पंकशिष़ इसे प्यासी के नाम से भी जाना जाता हैं इसका जीरा बंगाल से आता हैं इस मछली की कीमत स्थानीय बाजार में 150 रुपये प्रति किलो हैं उनके पास आठ का छोटा तालाब भी है, जिसमें मछली के बीज को प्रारंभिक अवस्था में डाल कर तीन माह बाद उन्हीं छोटी मछलियों को बड़े तालाब में डाल देते हैं|इसके अलावा राज्य सरकार के मत्स्य विभाग से छह एकड़ के तालाब को नौ हजार रुपये प्रति वर्ष की दर से लीज पर लेकर मछली पालन करा रहे हैं|जिससे इन्हें प्रति वर्ष लाखों की आय हो रही हैं अपने इस सभी व्यवसायों का ज्यादा लाभदायक बनाने के लिए समय-समय पर मत्स्य बीज (जीरा) पंत नगर एवं कोलकाता से ले आते हैं|उन्होंने ने कहा कि 22 एकड़ में धान व गेंहू की खेती कर 12-13 लाख रुपये की आमदनी हो जाती हैं मछली पालन से दो लाख की आमदनी होती हैं मिश्रित खेती कर साल में 15 लाख रुपये कमा लेते हैं
पशुपालन रू भीमराज राय पशुपालन को खेती का अहम हिस्सा मानते हैं|क्योंकि उनका मानना है कि पशुओं के गोबर की खाद का उपयोग कर लंबे समय तक खेत की उर्वरा शक्ति को बरकरार रखा जा सकता हैं इनके पास शाही नस्ल की दो गाय व दो मुर्रा भैंसे हैं|1983 से इनके यहां वायोगैस प्लांट लगा हुआ है जिसे इन्हीं पशुओं के गोबर से चलाया जाता हैं बायो गैस से इनके रसोई का सारा कार्य संपन्न होता हैं गैस के उपयोग के बाद प्लांट से निकलने वाला अपशिष्ट पदार्थ (गोबर) खाद के रूप में खेतों में डाला जाता हैं इसी के साथ इन्होंने एक छोटा वर्मी कंपोस्ट बनाने की यूनिट भी लगा रखी हैं जिसके खाद से लगभग दो एकड़ में जैविक खेती भी करते हैं|इन्होंने 1996 में करनाल (हरियाणा) से होलिस्टन फिजीशियन नस्ल की एक गाय खरीदी, जिससे अब तक दो दर्जन से भी अधिक गायें की बिक्री कर लाखों रुपये की आय अजिर्त कर चुके हैं|15 लीटर दूध देने वाली गाय की कीमत लगभग 35 हजार रुपये हैं अनुभव के आधार कर कहा कि यदि दूध आठ घंटे के अंतराल पर निकाला जाय तो एक गाय अथवा भैंस से एक लीटर दूध से अधिक प्राप्त किया जा सकता हैं गाय के दूध की कीमत 30 से 32 रुपये तथा भैंस के दूध की कीमत 35-40 रुपये की दर से मिल जाती हैं जो किसानों के लिए आय का एक अच्छा स्रोत हो सकता हैं
धान व गेहूं रू भीमराज राय अपनी बीस एकड़ की खेती से करीब अस्सी टन धान का उत्पादन करते हैं|अंतराष्ट्रीय बीज कंपनी बायर सीड्स एंड केमिकल से हाईब्रीड एराइज प्रभेद के धान का बीज लेकर करीब आठ एकड़ में खेती की थी जिसका उत्पादन चालीस क्विंटल प्रति एकड़ हुआ़ इसके अलावा सुगंधित पूसा बागमति की खेती कर विपरित मौसम होने के बाद भी पर्याप्त पैदावार प्राप्त की़ अभी वे प्रजनक बीज के रूप में नवीन पूजा, एमटीयू तथा केतकी जोहा आदि धान के विभिन्न प्रभेदों के बीज का उत्पादन कर अपने आसपास के किसानों की खेती को लाभकारी बनाने का सपना पूरा करने में लगे हुए हैं|इसके अलावा गेहूं उत्पादन में भी महारत हासिल हैं इनके खेतों में धान व गेहूं का उत्पादन प्रति एकड़ पंजाब से अधिक होता हैं उन्होंने कहा कि फसल कटाई के पंजाब से आये हुए हारवेस्टर चालकों ने भी कहा कि पंजाब में भी इतना उत्पादन नहीं होता हैं कई वर्षो से छह लाख का धान व दो लाख रुपये गेहूं बाजार में बेचा़ इसके अलावा दो लाख रुपये का धान बीज के रूप में कृषि विज्ञान केंद्र आरा को दिया़ राज्य के अनुशंसित किस्म एचडी 2733 व डब्ल्यू आर 544 गेहूं के आधार बीज की खेती कर कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा प्रमाणित बीज के रूप में किसानों को दे रहे हैं|देवचंदा गांव को केवीके आरा द्वारा बीज ग्राम घोषित भी किया गया था़ |
वैज्ञानिक सहयोग
वैज्ञानिक सहयोग रू समय-समय पर कृषि मेलों एवं प्रदर्शनियों में भाग लेने के साथ ही इन्हें कृषि तथा मत्स्य वैज्ञानिकों का सहयोग एवं मार्गदर्शन मिलता रहा हैं कृषि विज्ञान केंद्र आरा के प्रभारी डक्टर पीके दिवेदी कार्यक्रम समन्वयक शशि भूषण एवं निलेश का सहयोग सराहनीय रहा़ मत्स्य पालन का प्रशिक्षण आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा स्थित केद्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान से प्राप्त किया हैं 1986 तथा 90 में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए हैदराबाद गय़े पंत नगर प्रति वर्ष जाते हैं|वर्ष 2006 में पंत नगर में आयोजित कृषक ज्ञान प्रतियोगिता में पुरस्कृत किये गये थ़े पंत नगर के कृषि वैज्ञानिकों डॉक्टर मिश्र का सहयोग इन्हें इस ऊंचाई तक पहुंचाने में मदद्गार साबित हुआ़ ये आत्मा भोजपुर द्वारा प्रायोजित किसान विद्यालय से जुड़ कर स्थानीय किसानों को प्रशिक्षण भी दे रहे हैं|आसपास के गांवों के दर्जनों किसान इनसे जुड़ कर खेती के नये गुर सीख कर अपने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में सफल हो रहे हैं|रासायनिक खाद एवं कीटनाशी के रूप में एमीपके तथा यूरिया का संतुलित मात्र में उपयोगक़ कीटनाशी में वायो पेस्टीसाइड व कंफीडोर का उपयोग पर्यावरण को ध्यान में रख कर सकते हैं|सुपर किलर के बारे में इनका अनुभव है कि इसके प्रयोग से मित्र कीट भी मर जाते हैं, जिससे पर्यावरण असंतुलित होता है साथ ही इनका उपयोग एक बार करने से कुछ कीट ऐसे होते हैं जिन पर दूसरे कीटनाशी का उपयोग बे असर हो जाता हैं राय खुद जैविक खाद एवं कीटनाशी का उपयोग करते हैं|साथ ही अन्य किसानों को भी इसके प्रयोग की सलाह देते हैं| इनका मानना है कि कृषि वैज्ञानिकों की सलाह पर ही संतुलित मात्र में रासायनिक खाद व कीटनाशी का उपयोग करना चाहिये|
सम्मान व पुरस्कार
खेती के प्रति इनके समर्पण और उपलब्धियों को ध्यान में रख कर वर्ष 2007 में राज्य सरकार ने किसान भूषण से सम्मानित किया़ साथ ही किसानश्री का भी पुस्कार मिला़ इसके अलावा राष्ट्रपति के आमंत्रण पर राष्ट्रपति भवन में कृषि चर्चा करने का अवसर भी इन्हें मिला़ इनकी खेती में हो सहयोगी स्थायी रूप से इनके साथ कार्य करते हैं|ट्रैक्टर चालक को निश्चित राशि देने के अलावा एक बीघा जमीन की पूरी उपज तथा दूसरे सहयोगी को दो बीघा जमीन की पूरी उपज देते हैं|क्षनके घर की नींव से सटा हुआ एक विशाल पीपल का वृक्ष बाबा के समय का हैं इसकी वजह से इनका दालान नहीं बना़ जब इसे काटने की बारी आयी तो इनके पिता ने कहा कि पुराने पेड़ को कटोगे जो हमारे अशुभ नहीं बल्कि शुभ हैं परिणाम आज भी पीपल का वृक्ष अपनी हरियाली बिखेर रहा हैं उन्होंने अपने बगीचे में केला, अमरूद के अलावा बीजू, मालदाह, शुकुल तथा सफेदा आदि आम की कई किस्में लगाई हैं|ये अपने एक मात्र पुत्र को कृषि विशेषज्ञ बनाना चाहते हैं|इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने बेटे को जबलपुर में एमएससी (कृषि) की पढ़ाई के लिए नामांकन कराया हैं उन्होंने कहा कि खेती के प्रति समर्पण हो वैज्ञानिक तरीके खेती की जाये तो यह पेशा कभी अलाभकारी नहीं हो सकता़|
मछली पालन करती महिलाएं
आधी आबादी हर वह काम कर सकती है जो पुरुष करते हैं| चाहे वह कोई भी क्षेत्र क्यों ना हो| यह भी सच है कि वजर्नाएं जब टूटती हैं तो इतिहास बनता है| मछली मारना और मत्स्यपालन जैसे कार्य को आमतौर पर पुरुषों ही करते हैं लेकिन अब इस काम में भी महिलाओं ने अपने कड़ी मेहनत के दम पर समाज के सामने एक मिसाल पेश किया है|
संस्था ने दिखाया रास्ता, महिलाओं ने चुनी मंजिल
मधुबनी जिले का अंधराठाढ़ी प्रखंड एक नजीर बन गया है| उनके लिए जो लीक से हट कर कुछ करने में यकीन रखते हैं| यहांसमाज के अंतिम पायदान से ताल्लुक रखने वाले वर्ग की महिलाएं अपनी मेहनत की इबारत लिख रही हैं| दरअसल इन महिलाओं ने मछलीपालन कर अपने घर परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के साथ जिंदगी जीने के तौर-तरीके को भी बदल दिया है| यह भी सच है कि इतनी बड़ी पहल करने में एक संस्था का अहम योगदान है, लेकिन मेहनत तो केवल इन महिलाओं का है| इनके हालात में सुधार लाने के लिए कार्यरत संस्था ‘सखी बिहार’ ने इन को बेहतरी का रास्ता दिखाया|
आसान नहीं था अब तक का सफर
इन महिलाओं ने कैसे अपनी सफलता की कहानी लिखी? संस्था की सचिव सुमन सिंह बताती हैं कि यह प्रोजेक्ट सन् 1990 में शुरू किया गया था| उससे पहले सन् 1984-85 में महिला सशक्तीकरण के लिए केंद्र सरकार प्रायोजित ‘द्वाकरा’ ने इनको स्वावलंबी करने के लिए काम शुरू किया था| पांच साल बाद जब ‘द्वाकरा’ द्वारा कराये जा रहे काम की तहकीकात की गयी तो कोई खास नतीजा सामने नहीं आया| इस बीच इन पांच सालों के दौरान ही इस क्षेत्र को प्रकृति के दो कहर भी ङोलने पड़े| साल 1987 का भूकंप और 1989 के बाढ़ में सब कुछ तबाह हो गया था|
तालाब से दिखा रास्ता
मिथिलांचल में तालाबों की भरमार है| इन तालाबों का सही उपयोग नहीं हो पाता था| मछली का उत्पादन तो होता था लेकिन बहुत सीमित| मछुआरे इसी के सहारे अपने परिवार का पेट पालते थे| चौखट के बाहर कदम रखने पर भी पाबंदी थी| यह मछुआरे जिनके तालाब में मत्स्यपालन करते थे, उनके ही घरों में ये औरतें घरेलू काम करती थी| कुल मिला कर हालत बहुत दयनीय थी| संस्था ने इन महिलाओं को ही जागरूक करने का निश्चय किया| उन्हें यह बताया गया कि वह मछलीपालन द्वारा घर-परिवार की हालत सुधार सकती हैं|
बदली सत्ता तो बदला जीवन
सन् 2005 में बिहार के राजनैतिक घटनाक्रम में बदलाव हुआ| यह इस क्षेत्र के लिए बदलाव वरदान साबित हुआ| नयी सरकार के तत्कालीन मत्स्यपालन मंत्री ने पुराने नियमों में संशोधन किया| इसमें हर वो बाधा दूर करने की कोशिश की गई जिससे इस जैसी योजनाओं को लागू करने में परेशानी आ रही थी| नियमों में लचीलापन होने से नयी ऊर्जा के साथ महिलाओं को समझाने की प्रक्रिया फिर शुरू हुई| साल 2006 में करीब 10 महिलाओं ने अपनी रुचि दिखाई| इनको काम के बारे में बताया गया| उन्होंने मत्स्यपालन शुरू कर दिया| इनकी मेहनत रंग लाने लगी साथ ही इनकी चर्चा भी होने लगी| इसका सुखद परिणाम दूसरे साल में देखने को मिला| इनकी संख्या 10 से बढ़ कर दो सौ हो गई| इस बीच अरसे से लटके कॉपरेटिव को भी सरकारी मान्यता मिल गई|
मिला साथ तो बन गया कारवां
अंधेराठाढ़ी प्रखंड के ठाढ़ी, पथार, उसरार, बटौला, महरैल, भगवतीपुर, कर्णपुर गांव समेत पूरे ब्लॉक की लगभग सात हजार महिलाएं रोहू, कतला, नैन, कमलकार, ग्रास जैसी कई किस्मों की मछलियों का उत्पादन कर रही हैं| सभी महिलाओं की उम्र 26 साल से 45 साल तक है| आमतौर पर महिलाओं को मछली बेचते देखा जा सकता है| पश्चिम बंगाल और कई दूसरे राज्यों में औरतें ऑर्नामेंटल मछलियों का उत्पादन एक्वेरियम को सजाने के लिए करती हैं| अंधराठाढ़ी के मछलीपालन में एक सबसे रोचक बात यह हैं कि संभवत: देश में पहली बार ऐसा मिथिलांचल में ही हो रहा है जहां महिलाएं तालाबों को पट्टे पर लेने, उसमें मछली का जीरा डालने, रख-रखाव करने और बिक्री का काम खुद करती हैं|
नाजुक कंधों पर टिके रहते हैं मजबूत इरादे
मछलीपालन का सारा काम महिलाएं खुद संभालती हैं| तालाबों को पट्टे पर लेकर सफाई करने के बाद मछलीपालन के योग्य बनाती हैं, फिर तालाब का पानी बदलती हैं| मधुबनी स्थित हैचरी से मछली का जीरा महिलाएं ही लाती हैं| इसमें ‘सखी बिहार’ मदद करता है| जीरा डालने के बाद समय पर दाना देना, गोबर डालने के साथ-साथ वक्त पर जाल डाल कर मछलियों की वृद्धि और तालाब के पानी की गुणवत्ता को जांचने का काम भी यही करती हैं| जाल भी यह खुद ही बनाती हैं| इन सभी प्रक्रियाओं में कम से कम छह महीने लगते हैं| इस दरम्यान एक मछली करीब एक किलो तक वजनी हो जाती है| इस तरह से एक तालाब से लगभग आठ से दस क्विंटल तक मछली का उत्पादन होता है| कुछ दिन पहले तक इन मछलियों की बिक्री जहां 40 से 50 रुपये प्रति किलो तक होती थी| मछलियों की उन्नत किस्में होने के कारण यह दो सौ रुपये प्रति किलो तक बिक रही हैं| बाजार में बड़े व्यापारियों को मछली बेचने काम भी यही संभालती हैं| इनकी मांग इतनी है कि बिहार में ही इनकी खपत हो जाती है|
कंगाली से खुशहाली तक
पानी से पैसा निकालने के इस काम से इनके जीवन में बदलाव आ गया है| कल तक यह महिलाएं जो भूमिहीन थी, जो किसी के घर काम कर के दो जून का खाना बमुश्किल जुटा पाती थी| आज उनके पास अपना मकान है| बैंकों में निजी खाते और मोबाइल फोन है| इन महिलाओं में शिक्षा के प्रति भी जागरूकता आयी है| अंगूठा छाप महिलाएं अब शिक्षित हो कर अपना भला-बुरा खुद समझने लगी हैं| घर के पुरुष सदस्य जो इनकी कार्यक्षमता पर ऊंगली उठाते थे, आज वही इनका साथ दे रहे हैं|
कई बाधाओं के बाद मिली मंजिल
सुमन कहती हैं कि इन महिलाओं की सफलता के पीछे बाधाओं की लंबी सूची है| हमने यह तो सोच लिया कि इन महिलाओं को जागरूक करेंगे लेकिन इस प्रयास को धरातल पर उतारने में कितनी दिक्कत होगी? उसे कैसे दूर करेंगे? यह नहीं सोचा था| सबसे पहले इनसे मिल कर मछलीपालन के बारे में बताया गया| उन्हे विश्वास दिलाया गया कि यह काम कर सकती हैं| गांव के लोगों भी कई तरह के सवाल करते थे| जैसे यह काम तो पुरुषों का है| महिला मत्स्यपालन कैसे करेंगी? परिवार के पुरुषों को भी विश्वास दिलाया गया| सरकार की मत्स्यपालन संबंधी नियम कानून भी राह में रोड़ा बन रहे थे| इसके अनुसार तालाब में वही मछलीपालन कर सकता था, जो उसका मालिक हो| एक परेशानी यह थी कि इन तालाबों पर गैर-मछुआरे और दबंगों का कब्जा था| वह किसी प्रकार से बात करने को तैयार नहीं होते थे| समझने, समझाने में ही नौ साल निकल गया| इन सब कोशिशों में साल 1991 से साल 2000 हो गया| इसी दौरान मत्स्यपालन के लिए कॉपरेटिव का गठन किया गया| सरकार से इसकी मान्यता लेने की कोशिश की गई लेकिन प्रक्रियाएं इतनी धीमे थी कि कब कैसे क्या होगा? कुछ पता ही नहीं चलता था|
उम्मीद नहीं थी कि मछलीपालन कर के हम इतना कुछ कर लेंगे| हमारी जिंदगी में हर चीज की कमी थी| मछलीपालन कर के हमने धीरे-धीरे जरूरत का सामान एकत्र कर लिया है| पहले हम भूमिहीन थे| जिनकी तालाब में हमारे पति मछली मारा करते थे| उनके यहां ही रहते थे| अब हमारा अपना मकान है|
उरिया देवी, उसरार
मेरे पति दूसरे प्रदेश में काम करते थे| इस काम को करने से हमारे जीवन में बदलाव आ गया है| मेरे जैसी कई औरते हैं जो मछलीपालन कर के अपने आर्थिक हालात को बदल रही हैं| अब मेरे घर से कोई दूसरे राज्य में नौकरी करने के लिए नहीं जाता है|
एक हेक्टेयर में मछलीपालन कर कमा रहे चार लाख
अभी राज्य में मछली का उत्पादन प्रतिवर्ष 64 लाख टन होता है| यह उत्पादन मानवीय आवश्यकता से कम है| इसी को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार मत्स्य शिक्षा संस्थान के सहयोग से यहां के किसानों को मछली व महाझींगा पालन के लिए प्रोत्साहित कर रही है| उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है| इसके बाद यह आर्थिक दृष्टि से काफी लाभदायक है| नालंदा जिले के नूरसराय अनुमंडल निवासी किसान कवींद्र कुमार मौर्य ने सन 2000 में पांच डिसमिल में तालाब खोद कर मछलीपालन शुरू किया| अब एक हेक्टेयर में मत्स्यपालन कर रहे हैं| इससे प्रतिवर्ष लाखों रुपये कमा रहे हैं| साथ ही एक सफल मत्स्यपालक के साथ-साथ प्रगतिशील किसान के रूप में भी अपनी पहचान बनाने में सफल हुए हैं| एमएससी बॉटनी से करने के बाद खेती एवं मत्स्यपालन करने पर अब उन्हें कोई पछतावा नहीं है| राज्य में मुख्यमंत्री तीव्र बीज विस्तार योजना के तहत कवींद्र ने आंध्र प्रदेश, कोलकाता, भुवनेश्वर, पंतनगर तथा केंद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान, वरसोवा (मुंबई) से मृदा एवं प्राणी जांच, मछली एवं महाझींगा का तथा आंध्रप्रदेश के काकीनाडा से भी मत्स्यपालन व बीज उत्पादन का प्रशिक्षण प्राप्त किया|
इसके अलावा सीतामढ़ी जिला स्थित सरकारी हेचरी से भी कुछ मत्स्य बीज उन्हें मिले| अपने व्यवसाय के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा तकनीकी एवं व्यावहारिक जानकारी के लिए इन्हें हजारों रुपये खर्च करने पड़े| शुरू में तालाब निर्माण खुद कराया| फिर मत्स्य वैज्ञानिकों के संपर्क में आने पर जैसे-जैसे सरकारी योजनाओं की जानकरी हुई, वैसे-वैसे उन योजनाओं का लाभ उठाते हुए कुल लागत का 20 प्रतिशत तक सरकारी अनुदान प्राप्त किया|
ऐसे की शुरुआत
फुलवारीशरीफ, पटना की सरकारी हेचरी से 12000 हजार जीरा लेकर अपने तालाब में डाला, जिसकी कीमत तीन हजार रुपये थी| इस बार उन्हें थोड़ा ही लाभ हुआ| पर, धुन के पक्के कविंद्र ने कड़ी मेहनत से सफल होने के गुर सीखते रहे| दो-दो कट्ठे का तालाब बना कर मत्स्य बीज की नर्सरी तैयार की| सबसे पहले स्पांस नर्सरी में डालते हैं| उसके बाद रियरिंग में, फिर कुछ समय बाद फिंगर को निकाल कर बड़े तालाब में डाल दिया जाता है| इसके बाद ही मछलियों को बाजार में बिक्री के लिए तैयार किया जाता है| इनके तालाब में रोहू, कतला, नैनी, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प व कॉमन कार्प के अलावा देशी मांगुर भी पाली जाती है| आज सात प्रकार की मछलियों का उत्पादन उनके तालाब में होता है| आज तीन से चार लाख की आय सालाना होती है|
वैज्ञानिकों व संस्थानों का सहयोग
वाटर स्पान टेस्ट में काकीनाडा के जी वेणुगोपाल, राज्य सरकार के मत्स्य विभाग के आरएन चौधरी, केंद्रीय मत्स्य संस्थान, वरसोवा (मुंबई) के वैज्ञानिक डॉ दिलीप कुमार तथा वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ एसएन ओझा का भी मार्गदर्शन समय-समय पर मिलता रहा है| इसी कारण राज्य के कई जिलों में मत्स्यपालन पर होनेवाले सेमिनार व प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कविंद्र को भाग लेने का अवसर मिला, जहां किसानों को कुछ सिखाया और कुछ सीखा भी| आज कविंद्र अपनी पहचान मत्स्य उत्पादक के साथ-साथ प्रगतिशील किसान बनाने में सफल रहे हैं| एक हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले तालाब की चारों ओर बांध बना है, उसके ऊपर अरहर की की खेती की है, जिससे प्रति वर्ष करीब 20 हजार रुपये की आमदनी होती है| तालाब के चारों ओर प्रयोग के तौर पर 300 सहजन लगाये हैं|
प्रामाणिक बीज उत्पादन
कृषि विज्ञान केंद्र, नूरसराय (नालंदा) पूसा कृषि विश्वविद्यालय, समस्तीपुर की एक शाखा है| वहां के वैज्ञानिकों का सहयोग उन्हें बराबर मिलता रहता है| मछली उत्पादन, हल्दी एवं सब्जी की खेती की आय से उनके बच्चे राज्य से बाहर रह कर उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं|
आज आसपास के गांवों के कई किसान इनकी देखरेख में खेती एवं मत्स्यपालन कर रहें हैं| इन सब के अलावा कवींद्र कुमार नुरसराय आत्मा एवं नालंदा जिला खादी ग्रामोद्योग के अध्यक्ष भी हैं| इसके साथ उन्हें जिला प्रशासन व विश्वविद्यालय की ओर से कइे पुरस्कार मिले| जिला में इतना सब एक साथ कर पाना किसी आम आदमी किसान के लिए संभव नहीं था| पर उन्होंने कहा कि यदि आपके अंदर कुछ करने की इच्छाशक्ति हो और उसे अपना एक मिशन मान कर करें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है| क्योंकि जब आप कुछ नया करते हैं जिससे आपके आसपास लोगों को लगता है कि कार्य करने से पूरा समाज लाभान्वित हो रहा है तो लोग अपने एक कड़ी के रूप में जुड़ते जाते हैं, जो आप की सफलता का राज होता है|
लेखक: संदीप कुमार, वरिष्ठ पत्रकार|
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