परिचय –
शीशम (Shisham, Dalbergia Sissoo, The Blackwood, Rosewood) बहुपयोगी वृक्ष है। इसकी लकड़ी, पत्तियाँ,जड़ें सभी काम में आती हैं। इस की लकड़ी फर्नीचर एवं इमारती लकड़ी के लिये बहुत उपयुक्त होती है। पत्तियाँ पशुओं के लिए प्रोटीनयुक्त चारा होती हैं। जड़ें भूमि को अधिक उपजाऊ बनाती हैं। पत्तियाँ व शाखाएँ वर्षा-जल की बूँदों को धीरे-धीरे ज़मीन पर गिराकर भू-जल भंडार बढ़ाती हैं। सारे भारत में शीशम के लगाये हुये अथवा स्वयंजात पेड़ मिलते हैं। इस पेड़ की लकड़ी और बीजों से एक तेल मिलता है जो औषधियों में इस्तेमाल किया जाताहै।
शीशम के बीज दिसंबर-जनवरी माह में पेड़ों से प्राप्त होते हैं। एक पेड़ से एक से दो किलो बीज मिल जाते हैं। बीजों से नर्सरी में पौधे तैयार होते हैं। बीजों को दो तीन दिन पानी में भिगोने के बाद बोने से अंकुरण जल्दी होता है। इसलिए इन्हें 10 सेमी की दूरी पर कतार में 1-3 सेमी के अंतर से व 1 सेमी की गहराई में बोया जाता है। नर्सरी में बीज लगाने का उपयुक्त समय फरवरी-मार्च है। पौधों की लंबाई 10-15 सेमी होने पर इन्हें सिंचित क्षेत्र में अप्रैल-मई व असिंचित क्षेत्र में जून-जुलाई में रोपा जाता है। रोपों को प्रारंभिक दौर में पर्याप्त नमी मिलना जरूरी है।
कहाँ लगा सकते हैं:-
शीशम के पेड़ सड़क-रेल मार्ग के दोनों ओर, खेतों की मेड़, स्कूल व पंचायत भवन परिसर, कारखानों के मैदान तथा कॉलोनी के उद्यान में लगा सकते हैं। मालवा-निमाड़ के खंडवा-खरगोन ज़िलों तथा चंबल संभाग के श्योपुर क्षेत्र में इसे उगाया जा सकता है।
कैसे रोपे जाते हैं:-
पौधे रोपने के लिए पहले से ही 1 फीट गोलाई व 1 फुट गहरा गड्ढा खोदकर उसमें पौध मिश्रण भर दिया जाता है। पेड़ों के बीच कितनी दूरी रखी जाए, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ की मिट्टी कैसी है व इन्हें किस स्थान पर लगाना है। हल्की मिट्टी में बढ़वार कम होती है। इसी प्रकार जहाँ सिर्फ शीशम की खेती करना हो, वहाँ ढाई से तीन मीटर की गहराई में लगाया जाता है। भारी मिट्टी वाले उपजाऊ खेतों की मेड़ पर इन्हें कम से कम पाँच मीटर की दूरी पर लगाया जाता है।
कीड़ों का उपचार जरूरी:-
शीशम की लकड़ी भारी, मजबूत व बादामी रंग की होती है। इसके अंतःकाष्ठ की अपेक्षा बाह्य काष्ठ का रंग हल्का बादामी या भूरा सफेद होता है। लकड़ी के इस भाग में कीड़े लगने की आशंका रहती है। इसलिए इसे नीला थोथा, जिंक क्लोराइड या अन्य कीट रक्षक रसायनों से उपचारित करना जरूरी है।
स्वरूप:-
शीशम के पेड़ 100 फुट तक ऊंचे होते हैं। इसकी छाल मोटी, भूरे रंग की तथा लम्बाई के रूख में कुछ विदीर्ण होती है। शीशम की नई टहनियां कोमल एवं अवनत होती है। शीशम के पत्ते एकान्तर, पत्तों की संख्या में 3 से 5 एकान्तर, 1 से 3 इंच लम्बे, रूपरेखा में चौड़े लट्वाकर होते हैं। शीशम के फूल पीताभ-सफेद, फली लम्बी, चपटी तथा 2 से 4 बीज युक्त होती है। शीशम का सारकाष्ठ पीताभ भूरे रंग का होता है। इसकी एक दूसरी प्रजाति का सारकाष्ठ कृष्णाभ भूरे रंग की होती है। शीशम के 10-12 वर्ष के पेड़ के तने की गोलाई 70-75 व 25-30 वर्ष के पेड़ के तने की गोलाई 135 सेमीतक हो जाती है। इसके एक घनफीट लकड़ी का वजन 22.5 से 24.5 किलोग्राम तक होता है। आसाम से प्राप्त लकड़ी कुछ हल्की 19-20 किलोग्राम प्रति घनफुट वजन की होती है।
रासायनिक संघटन:-
शीशम के तने में तेल पाया जाता है और फलियों में टैनिन और बीजों में भी एक स्थिर तेल पाया जाता है।
गुण:-
शीशम, कड़वा, गर्म, तीखा, सूजन, वीर्य में गर्मी पैदा करने वाला,गर्भपात कराने वाला, कोढ़ (कुष्ठरोग), सफेद दाग, उल्टी, पेट के कीड़े को खत्म करने वाला, बस्ति रोग, हिक्का (हिचकी), शोथ (सूजन), विसर्प, फोड़े-फुन्सियों, ख़ून की गंदगी को दूर करने वाला तथा कफ (बलगम) को नष्ट करने वाला है। शीशम सार स्नेहन, कषैला, दुष्ट व्रणों का शोधन करने वाला को खत्म करने वाला होता है। शीशम, अर्जुन, ताड़ चंदन सारादिगण, कुष्ठ रोग को नष्ट करता है, बवासीर, प्रमेह और पीलिया रोग कोखत्म करता है और मेद के शोधक है। शीशम,पलाश, त्रिफला, चित्रक यह सब मेदा नाशक तथा शुक्र दोष को नष्ट करने वाला है एवं शर्करा को दूर करने वाला है।
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चमत्कारी खोज:-
यूं तो ‘शीशम’ से ज्यादातर लोग परिचित होंगे, लेकिन बहुत कम लोग ही यह जानते होंगे कि इमारती लकड़ी के लिए मशहूर शीशम अब टूटी हुई हड्डी को सबसे तेज जोडऩे वाला पौधा भी बन गया है। केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआइ) के वैज्ञानिकों ने शीशम में हड्डी को जोडऩे वाले महत्वपूर्ण गुण की तलाश की है। संस्थान ने इसका लाइसेंस गुजरात की एक कंपनी की सौंप दिया है और उम्मीद जताई जा रही है कि अगले पांच-छह महीने में यह औषधि बाजार में उपलब्ध हो जाएगी।
इंडोक्राइन विभाग की डॉ.रितु त्रिवेदी बताती हैं कि खास बात यह है कि जिस फ्रेक्शन को ‘रैपिड फ्रैक्चर हीलिंग एजेंट’ के रूप में प्रयोग किया गया है उसे शीशम की पत्तियों से प्राप्त किया गया है। चूंकि पत्तियां ऐसा स्रोत हैं, जो सीमित नहीं है इसलिए इसके निर्माण के लिए जरूरी कच्चे माल की कोई कमी नहीं होगी। डॉ. त्रिवेदी के मुताबिक मेडिसिनल केमिस्ट्री के डॉ.राकेश मौर्या के सहयोग से इस पर शोध किया गया। शोध में विक्रम खेदगीकर, प्रियंका कुशवाहा, प्रीती दीक्षित व पदम कुमार भी शामिल थे।
आधे समय में जुड़ती है हड्डी:-
अमूमन फ्रैक्चर होने पर हड्डी जुडऩे में तीन सप्ताह का समय लगता है, लेकिन इस औषधि के इस्तेमाल से आधे समय में हड्डी जुड़ जाती हैं। डॉ. त्रिवेदी ने बताया कि यह एजेंट रजोनिवृत्ति के उपरांत महिलाओं में ऑस्टियोपोरोसिस के कारण होने वाले फ्रैक्चर में भी लाभकारी होगी।
साभार:- इन्टरनेट
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