परिचय
पर्यावरण जल की आपूर्ति न केवल लाभदायक फसलों की पैदावार में स्थिरता अपितु उनकी एवं उच्च मूल्य प्राप्त करने के लिए आवश्यक होता है| सिचाई फसल, पैदावार एवं उनको उगाने के लिए उपयुक्त होने वाली सामग्री की क्षमता में बढ़ाने में भी सहायक है| सिंचाई शुष्क एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में सफल फसलोत्पादन के लिए अतिआवश्यक है| ऐसे नमक्षेत्र जहाँ औसतन वार्षिक वर्षा 75-125 सेंटीमीटर तक होती है, उन क्षेत्रों के लिए सिंचाई को अधिक आवश्यक नहीं माना जाता है लेकिन फसल पैदा करने के समय ऐसा कम ही होता है कि सिंचाई की आवश्यकता न पड़ती हो व जल सिंचाई घटक एक कमी के रूप में हमेशा बना रहता है| इस जल की आपूर्ति के लिए सिंचाई का अत्यधिक महत्व होता है| सूखे का एक छोटा सा अन्तराल भी फसल की गुणवत्ता एवं पैदावार को बुरी तरह से प्रभावित करता है और लम्बे समय तक सूखे की स्थिति फसल को पूर्ण रूप स बर्बाद कर सकती है|
सिंचाई समय निर्धारण प्रक्रिया
सिंचाई समय का निर्धारण उचित प्रबंध रणनीति द्वारा सूखे की स्थिति में पैदावार के नुकसान को रोकने के लिए त्तथा सिंचाई के पानी की ज्यादा खपत को रोकने की प्रक्रिया है| सिंचाई अन्तराल निर्धारण करते समय फसल बढ़ोतरी की नाजुक स्थितियों एवं विकास को भी ध्यान में रखना चाहिए| पूर्ण रूप से स्थापित बगीचों में फल-फूल दशा, अंकुरों की दशा और फल का विकास समय महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इन दशाओं में जल की कमी फसल की की उत्पादकता कम कर देती है| सिमित जल संसाधन क्षेत्रों में फूल एवं पहल बनने के समय थोड़ी सी सिंचाई की व्यवस्था भी जल उपयोग क्षमता को बढ़ाती है| इसलिए उचित जल सिंचाई अन्तराल निर्धारण अधिकतम उत्पादकता हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण है| फसल क्षेत्र में पौधों की जल आवश्यकता की कमी को पूरा करने के लिए सिंचाई की व्यवस्था की जाती हैं| | ज्यादातर मामलों में पैदावार में कमी ऐसे समय पर निर्भर करती है जब जल की कमी का समय पूरे पैदावार अन्तराल में बना रहता है| इसलिए सही तरीके से सिंचाई समय निर्धारण करना चाहिये जिससे ज्यादा से ज्यादा पैदावार प्राप्त की जा सके| इसके लिए मृदा, पौधों एवं वातावरणीय घटकों की सक्रियता का उपयोग करना होता है|
सिंचाई समय निर्धारण का महत्व
सिंचाई जल का कुछ भाग मिट्टी में से पौधों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है और कुछ भाग वाष्पीकरण, अप्रवाह एवं भू-रिसाव द्वारा खो जाता है| इस तरह के जल के नुकसान की मात्रा सिंचाई प्रणाली के अभिकल्प तथा सिंचाई प्रबन्धन पर निर्भर करती है| उचित जल सिंचाई समय निर्धारण से जल प्रवाह में कमी लाकर सिंचाई क्षमता में ज्यादा बढ़ोतरी तथा जल आवश्यकता एवं उर्जा उपयोग में कमी लाई जा सकती है| यद्यपि ऐसी परिस्थितियों में जब पूर्ण जल नहीं दिया जा रहा हो तो उर्जा एवं जल आवश्कता उचित सिंचाई निर्धारण के बावजूद बढ़ जाती है| सिंचाई समय निर्धारण करने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए|
- मृदा जल स्तर
- वायुमंडलीय स्थितियां
- फसल का प्रकार, विविधता और विकास के चरण
- सिंचाई का समय
- सिंचाई का विधि
- हर सिंचाई के लिए जल मात्रा इत्यादि
सिंचाई निर्धारण दो मूल प्रश्नों के जबाव पाने की प्रक्रिया है|
सिंचाई कब करें?
कितनी मात्रा में सिंचाई प्रदान करें?
सिंचाई निर्धारण के लिए मापदंड
यहाँ तीन प्रकार के मापदंडों का प्रयोग कर सिंचाई समय पर निर्धारण किया जा सकता है:
मृदा जल स्तर
पौधों में जल स्तर
वातावरण एक निर्देशन के रूप में
- मृदा जल स्तर : सिंचाई समय का निर्धारण मृदा जल शासन अवधारणा के अनुरूप किया जा सकता है जिसके अनुसार मृदा नमी क्षेत्र क्षमता जो जो कि1/3 बार तनाव पर पौधों को 100% तक मानी गई है तथा 15 तनाव पर मृदा नमी की उपलब्धता फसल पैदावार के लिए शून्य होती है| यह प्रयोगात्मक माना जा रहा है कि पौधे की जड़े इसी सुरक्षित सीमा क्र अंदर नमी अवशोषित कर पाती हैं और यही मानदंड मुख्य मुख्य रूप से सिंचाई समय निर्धारण के लिए प्रयोग किया जा सकता है| दिए गये कृषि वातावरण क्षेत्र में मृदा नमी मात्रा विभिन्न फसलों के लिए तथा विभिन्न जलवायु परिस्थितयों में अलग-अलग होती है| सब्जियों में सिंचाई निर्धारण के लिए उपलब्ध मृदा नमी में से 25-30% की जल कमी को अनुमानित सीमा के अदंर रखा गया है| सदाबहारी बागवानी तथा गहरी जड़ों वाली सुखा अपरोधी फसलों के लिए यह अनुमानित सीमा उपलब्ध जल में कमी का 50-60% है| इसलिए मृदा जल खिंचाव जिससे पहले की फसल पूरी तरह सिंचाई से पहले सुख जाए हर फसल के लिए अलग-अलग है| यह सब्जियों के लिए एक बार है तथा सुखा अवरोधी एंव दूसरी फसलों के लिए 1.0 बार है|
पौधों द्वारा मार्गदर्शन
पौधे जड़ों द्वारा जल अवशोषित करके वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया द्वारा बड़ी मात्रा में जल को वायुमंडल में छोड़ते रहते हैं| सिंचाई जल निर्धारण के लिए पौधे मार्ग दर्शक का कार्य भी करते हैं, क्योंकि जल की आवश्यकता पौधों की बढ़ोतरी के स्तर पर भी निर्भर करती है| पौधों द्वारा बहार निकला गया जल वातवरण से सम्बन्धित सूचनाओं पर आधारित रहता है| प्रमुख सब्जियों के महत्वपूर्ण वृद्धि चरण, उनके लिए उचित सिंचाई द्वारा सारणी का तालिका-1 व तालिका -2 में दर्शाया गया है|
वातावरण द्वारा मार्गदर्शन
पौधों द्वारा वाष्पीकरण मुख्य रूप से उस क्षेत्र के वातावरण की परिस्थिति पर निर्व्हार करता है| ज्ञात है कि पौधे से जल वाष्पीकरण की अवधारणा ही पौधों में सिंचाई निर्धारण का मूल आधार बना| वाष्पीकरण द्वारा जल के ह्रास का अनुमान IW/CPE अनुपात पर आधारित रहता है (IW- सिंचाई की गहराई तथा CPE-थाला क्षेत्र से वाष्पीकरण द्वारा कुल ह्रास हुए जल की गहरे)| यह अनुपात विभिन्न फसलों के साथ-साथ विभिन्न कृषि वातावरण क्षेत्रों एक लिए भी अलग-अलग होता है| यह अनुपात 0.5 से 0.8 तक रहता है जो उगाई गई फसल के प्रकार तथा क्षेत्र की वातावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर करता है| प्रत्येक सिंचाई में जल की मात्र 4-6 सेंटीमीटर तक रहती है| प्रायः सिंचाई समय निर्धारण 5 सेंटीमीटर गहरी सिंचाई को आधार मान कर किया जाता है|
सिंचाई जल की मात्रा
पौधों में सिंचाई जल की मात्रा का निर्धारण करते समय मिट्टी में प्लांट एवेलेबल वॉटर (पी.ए.डब्ल्यू) में आई कमी का विशेष ध्यान रखा जाता है| पौधों में जड़ विकास, उपलब्ध वितरण एवं गहराई का ज्ञान सिंचाई जल की मात्रा का आंकलन करने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, इसके द्वारा मृदा भंडारण क्षमता का पता चलता है जहाँ से पौधे उपलब्ध जल को जड़ों द्वारा ग्रहण करते हैं| फसलों द्वारा अवशोषित जल का लगभग 70% भाग जड़ क्षेत्र के ऊपरी आधे भाग से प्राप्त होता है| यह क्षेत्र प्रभावी जड़ गहराई के नाम से जाना जाता है| यह गहराई पी एडब्ल्यू के आयतन को मापने के लिए भी प्रयोग की जाती है| सिंचाई जल की मात्रा पौधों के प्रभावशाली जड़ क्षेत्र में आई जल की कमी की पूर्ति करने के सक्षम होती है| कुछ फल-फसलों में सिचाई के समय की आवश्यकताओं को तालिका-3 में दर्शाया गया है|
तालिका-1 प्रमुख सब्जियों के महत्वपूर्ण वृद्धि चरण
फसल | महत्वपूर्ण चरण |
पत्तागोभी |
पूर्ण सख्त फूल बनने तक |
गाजर, मुली |
जड़ लम्बोतर |
टमाटर |
फूल, फल का लगना व विस्तार |
आलू |
कंद बनने की शुरुआत तथा फैलाव |
मिर्च |
फूलों का बनना |
प्याज |
कंद बनने की शुरुआत से इसके पूर्ण विकास तक |
मटर |
फूल व फलियों का विकास |
शिमला मिर्च |
फूल-फल का लगना तथा फल का विकास |
तालिका 2 विभिन्न फसलों के लिए सिंचाई समय-सारणी
फसल |
सिंचाई की संख्या तथा अन्तराल |
टमाटर |
प्रारंभ में पौधों को स्थापित करने के लिए 15-20 दिनों तक 0.5 लीटर/पौधा/दिन पानी दें| तदोपरान्त 8-10 दिनों के अंतराल 4-5 सेंटीमीटर की सिंचाई करें| |
बंदगोभी एवं फूलगोभी |
शुरू में पौधों को स्थापित करने के लिए 15 दिनों तक 0.5 लीटर/पौधा/दिन पानी दें| उसके उपरांत 2-3 बार 4.0 सेंटीमीटर की सिंचाई 7-8 दिन के अन्तराल पर करें| यदि प्रयोप्त वर्षा (40-50 मिलीमीटर) हो तो सिंचाई में अन्तराल रखा जा सकता है| |
बीन, शिमला मिर्च |
बुआई से पहले 1 सिंचाई तथा उगने के बाद 7-10 दिन के अन्तराल पर चार सिंचाईयां| प्रारभ में पौधों को स्थापित करने के लिए 15-20 दिनों तक 0.5लीटर/पौधा/दिन पानी दें| तदोपरान्त गर्मियों में 7-8 दिनों के अन्तराल पर तथा सर्दियों में 12-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें| |
मटर |
बुआई के लगभग 25. 40 तथा 60 दिनों के बाद तीन बार 4-5 सेंटीमीटर की सिंचाई करें यदि इन दिनों के बीच 40 मिलिटर से ज्यादा वर्षा हो तो सिंचाई के लिए 15 दिन का अन्तराल बढ़ादें| |
भिन्डी |
गर्मियों में 4-5 दिन के अन्तराल पर तथा सर्दियों में 10-12 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करें| |
मुली, गाजर, शलगम, शक्करकंदी |
बीजाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई और 6-8 दिनों के अन्तराल पर 6-8 सिंचाई करें| |
प्याज |
जून में लगाईं गई फसल के लिए 4-5 सेंटीमीटर की 5-6 सिंचाईयां |
अक्तूबर में लगाई गई फसल के लिए 4-5 सेंटीमीटर की 12-15 सिंचाईयां 12-15 दिनों तक नवम्बर-दिसम्बर में करें| |
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गर्मियों की फसल के लिए 4-5 सेंटीमीटर की 15-20 सिंचाईयां 5-6 दिनों के अन्तराल पर करें| |
*पानी की मात्रा की गणना 6 सेंटीमीटर पानी प्रति सिंचाई के हिसाब से की गई है|
*पपीते में 3 सेंटीमीटर सिंचाई
कुशल जल प्रबन्धन के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव
- सिंचाई और जल की उपयोग क्षमता में सुधार तथा उचित अन्तराल निर्धारण
- सिंचाई की सघनता तथा बारंबारता का निर्धारण मृदा प्रकार, जड़ तंत्र (गहरा या उथला), मौसम और फसल को किस्मों के अनुसार करें|
- फसल में जल की वास्तविक, आवशयकतानुसार ही सिंचाई करें जिससे मृदा एवं पौधा जड़ क्षेत्र में पानी खड़ा न रहे|
- उचित जल संरक्षण तकनीक अपनाएँ
- सिंचाई की अपर्याप्त सुविधा की स्थिति में कम अवधि एवं कम जल मांग वाली फसलों का चयन करें|
स्रोत: मृदा एवं जल प्रबंधन विभाग, औद्यानिकी एवं वानिकी विश्विद्यालय; सोलन