मटर का प्रयोग हरी अवस्था में फलियों के रूप में सब्जी के लिए तथा सूखे दानों का प्रयोग दाल के लिए किया जाता हैं। मटर एक बहुत ही पोषक तत्वों वाली सब्जी हैं जिसमें पाचंशील प्रोटीन, कार्बोहाइडेट्स तथा विटामिन पर्याप्त मात्रा में पाया जाता हैं। इसके अलावा इसमें खनिज पदार्थ भी पर्याप्त मात्रा में पाया जाता हैं। पतली छिलके वाली मटर की समूची फलियों और छिली हुई मटर के दानों को सुखाकर या डिब्बा बंद करके संरक्षित किया जाता हैं। जिसका प्रयोग बाद में सब्जी के रूप में किया जाता हैं। इनके अतिरिक्त मटर के हरे पौधों का प्रयोग जानवरों के हरे चारे व हरी खाद के लिए किया जाता हैं। मटर का पोषक मान निम्न तालिका 1 में प्रदर्शित हैं।
तालिका 1 : मटर का पोषकमान (प्रति 100 ग्राम खाद्य पदार्थ)
जल | 72.0 ग्राम | विटामिन ‘ए‘ | 139 आई. यू. |
वसा | 0.1 ग्राम | राइबोफलेविन | 0.01 मि.ग्रा. |
ऊर्जा | 93 किलोकैलोरी | थियामिन | 0.25 मि.ग्रा. |
कार्बोहाइड्रेट | 15.8 ग्राम | निकोटिनिक अम्ल | 0.8 मि.ग्रा. |
प्रोटीन | 7.2 ग्राम | विटामिन ‘सी‘ | 9 मि.ग्रा. |
खनिज पदार्थ | 0.8 ग्राम |
मटर की खेती हेतु आवश्यक जलवायु(Climate for Pea farming)
मटर की फसल के लिए नम और ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती हैं अतः हमारे देश में अधिकांश स्थानों पर मटर की फसल रबी की ऋतु में उगाई जाती हैं। उन सभी स्थानों पर जहाँ वार्षिक वर्षा 60 से 80 सेमी. तक होती है मटर की फसल सफलतापूर्वक उगाई जाती है। मटर की वृद्धि काल में कम तापक्रम की आवश्यकता होती है परन्तु फसल पर पाले का अत्यंत हानिकारक प्रभाव पड़ता हैं। फलियां बनने की प्रारम्भिक अवस्था में उच्च तापक्रम एवं शुष्क जलवायु का भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है। बीज के अंकुरण के लिए न्यनतम तापक्रम 5 डिग्री सेलसियस तथा उपयुक्त तापक्रम 22 डिग्री सेलसियस होता हैं।
भूमि
फलीदार फसल होने के कारण उन सभी कृषि योग्य भूमियों में जिसमें उपयुक्त मात्रा में नमी उपलब्ध हो सके मटर की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती हैं। मटियार दोमट तथा दोमट भूमि मटर की खेती के लिए अधिक उत्तम होती हैं। मटर के लिए ऐसी भूमि जिसका पी.एच.मान 6.0 और 7.5 के मध्य हो उपयुक्त होती हैं। अम्लीय तथा क्षारीय मृदा में फसल की अच्छी वृद्धि नही होती हैं। अच्छी फसल के लिए भूमि में जलनिकास का उत्तम प्रबंध होना अत्यंत आवश्यक होता है ताकि मृदा में वायु का आवागमन भली प्रकार सम्पन्न हो सकें।
मटर की उन्नत प्रजातियाँ (Pea varieties)
मध्यप्रदेश में उगायी जाने वाली प्रजातियाँ जैसे अर्किल, आजाद मटर- 3, पंत सब्जी मटर-3, पंत सब्जी, मटर-4, अरका अजीत इत्यादि विस्तृत रूप से ली जाती हैं।
मटर उत्पादन के लिए भूमि की तैयारी( Land preparation for Peas)
खरीफ की फसल से खेत खाली होते ही एक जुताई, गहरी की जाती है। इसके बाद 3-4 बार हैरों या देशी हल से खेत की जुताई की जाती हैं। बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है। नमी की कमी होने पर अन्तिम जुताई से पहले पलेवा कर देना चाहिए।
बीज दर एवं अंतरण( Seed rate )
बीज सदैव प्रमाणित एवं उपचारित बोना चाहिए। बीज को 0.25 प्रतिशत की दर से कैप्टान या थायराम से उपचारित किया जा सकता है। बीज दर बोने के समय व प्रयोग की जाने वाली जाति के अनुसार 80-120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा मध्यम और पछेती फसल के लिऐ 80-100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज की बुबाई करते है। उचित समय पर बोई गई फसल के लिए पंक्ति की दूरी 30 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 5 से.मी. रखते हैं।
बोने का समय एवं विधि( Sowing time and method for Peas)
मटर की बुवाई का उत्तम समय अक्टुबर की शुरुआत से नवम्बर के मध्य तक करना लाभदायक रहता है। अधिकतर बुबाई हल के द्वारा कूंडों में की जाती हैं। बुबाई के लिए सीड़ड्रिल मशीन का उपयोग किया जाता हैं। पौधों के बीच का अंतर 6-7 से.मी. रखते हैं। बीज को 4-5 से.मी. गहराई पर बोते हैं।
बीज उपचार(Seed treatment)
बुवाई से पहले बीज का उपचार फफूंद नाशक दवाओं, कैप्टान या थीराम के मिश्रण से करना चाहिए। प्रति कि.ग्रा. बीज में 3 ग्राम फफूंद नाशक का मिश्रण काफी हैं।
बीज निवेशन
खेत में बोने से पहले बीज का उपचार राइजोबियाम बैक्टीरिया से होना आवश्यक हैं क्योंकि अधिकांश क्षेत्रों में राइजोबियम बैक्टीरिया की मृदाओं में कमीं हैं। इस बैक्टीरिया के प्रयोग से नत्रजन की मात्रा लगभग 100 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर तक कम कर सकते हैं। मृदा में बैक्टीरिया के पहुँचाने की दो विधियाँ है:-
- अगर बैक्टीरिया कल्चर समय पर उपलब्ध न हो तो पुराने खेत में जिसमें 2-3 साल से लगातार मटर की खेती की जा रही हैं। और मृदा में बैक्टीरिया काफी है, से 1 टन मिट्टी लेकर एक हैक्टेयर खेत में छिड़क देनी चाहिए।
- बीज के साथ कल्चर को मिलाने के लिये 10 प्रतिशत का गुड़ का घोल (100 ग्राम 1 ली. पानी) 15 मिनट तक उबाल कर कमरे के तापक्रम पर ठण्डा कर लिया जाता हैं। इस घोल को बीज के उपर छिड़क कर बीज के साथ मिलाकर कल्चर इसमे मिला दिया जाता है। और बीज को छाया में सुखाते हैं। इस प्रकार इस बैक्टीरिया की एक पतली सतह प्रत्येक बीज पर जम जाती हैं। कल्चर मिलाया हुआ बीज कभी भी धूप में नही सुखाना चाहिए अन्यथा बैक्टीरिया नष्ट हो सकते है। बीज को अधिक समय तक भी कल्चर मिलाने के बाद नही रखना चाहिए। शीघ्र ही इस बीज की बुआई कर देनी चाहिए।
मटर के लिए खाद एवं उवर्रक(Fertilizers for Peas)
मटर की फसल दलहनी वर्ग में आती है। अतः इसे नत्रजन की विशेष आवश्यकता नही होती हैं। प्रारम्भ में राइजोबियम बैक्टीरिया के क्रियाशील होने तक 20-30 कि. ग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती हैं। इसके अतिरिक्त 50-60 कि.ग्रा. फास्फोरस व 40-50 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना आवश्यक हैं। उर्वरक सदैव बीज की कतारों से 5 से.मी. की दूरी पर बीज सतह से 3-4 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिए। फास्फेट उर्वरक उपज में वृद्धि के साथ गुणवत्ता में भी वृद्धि करता हैं। पोटाषिक उर्वरक भी उपज में वृद्धि तथा नत्रजन स्थिरीकरण में सहायता करते हैं। गोबर की खाद 20 टन प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि की तैयारी के समय ही देना लाभदायक रहता हैं।
सिंचाई(Irrigation of Peas)
मटर की उन्नतशील जातियों में दो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। शीतकालीन वर्षा हो जाने पर दूसरी सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती । पहली सिंचाई फूल निकलते समय बोने के 45 दिन बाद व दूसरी सिंचाई आवश्यकता पड़ने पर फल बनते समय, बोने के 60 दिन बाद करें। सिंचाई सदैव हल्की करनी चाहिए। स्प्रिंकलर सिस्टम का प्रयोग सिंचाई के लिए उपयुक्त होता हैं।
निराई-गुड़ाई(Weeding)
फसल बोने के 35-40 दिन तक फसल को खरपतवारों से बचाना आवश्यक हैं आवश्यकतानुसार एक या दो निराई बोने के 30-35 दिन बाद करनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार नियन्त्रण करने के लिए 1 कि. ग्रा. फलुक्लोरेलिन (बेसालिन) का 800-1000 ली. पानी में घोल बनाकर, फसल बोने से पहले, एक हैक्टेयर में छिड़काव कर नम मिट्टी में 4-5 सेमी. गहरे तक हैरो या कल्टीवेटर की सहायता से मिला देना चाहिए।
फलियों की तुड़ाई
सब्जी के लिए नवम्बर माह में बोई गई फसल जनवरी के मध्य से फरवरी के अंत तक फलियाँ देती हैं। फलियों को 10-12 दिन के अंतर पर 3-4 बार में तोड़ते हैं। अगेती प्रजातियाँ जैसे अर्किल दिसम्बर के अंत तक फलियाँ देने लगती हैं। फलियों से सब्जियों के लिए तोड़ते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि फलियों में दाने पूर्णतया भर गए हों और फलियों के छिलके का रंग हरा हो। छिलके का रंग पीला पड़ने पर बाजार में फलियों की कीमत कम मिलती हैं।
उपज(Yield per acre)
हरी फलियों की पैदावार 40-50 कु./हे. तक अगेती से प्राप्त किया जा सकता हैं। मध्यम तथा पछेती फसल से 60-70 कु./हे. उपज प्राप्त हो जाती हैं। तथा फलियाँ तोड़ने के पश्चात् 150 कु./हे. तक हरा चारा प्राप्त होता हैं।
मटर के रोग व उनकी रोकथाम(Pea diseases and their management)
1. चूर्णी फफूंदी रोग (पाउडरी मिल्डयू)
यह रोग एरीसाइफी पालीगोनी नामक फफूंदी से लगती हैं। यह रोग अधिकतर नम मौसम में लगता है। पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसी रचना दिखाई देती हैं। पछेती किस्मों में इसक आक्रमण गेभीर रूप् से होता हैं। इस बीमारी की रोकथाम के लिए 3 किग्रा. घुलनशील गंधक या सल्फेक्स को 1000 ली. पानी में घोलकर एक हैक्टेयर में छिड़कें। यदि आवश्यकता हो तो 15 दिन बाद दूसरा छिड़काव करें। रोग रोधी किस्में जैसे- अर्का अजीत, पंत सब्जी मटर-4 आदि किस्मों को उगायें।
2. गेरूई रोग (रस्ट)
यह रोग यूरोमाइसीज फेबी नामक फफूंदी से लगता हैं। यह रोग कभी-कभी फसल को अधिक क्षति पहुंचाता हैं। इसे रोकने के लिए रोग रोधी किस्मों को ही खेत में उगाना चाहिए। इसकी रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 या डाइथेन जेड-78 के 2.25 कि.ग्रा. को 1000 ली. पानी में घोलकर, प्रति हैक्टेयर छिड़काव करें।
मटर में हानिकारक कीट एवं उनकी रोकथाम (Pests of Pea and their management)
1. एफिड़
ये जनवरी में अन्तिम सप्ताह में दिखाई देने लगते हैं और वयस्क दानों व पत्तियों के रस को चूसते हैं। इसकी रोकथाम के लिए इमीडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से छिड़कना चाहिए। इसके अलावा रोटेनोन या रोटैनोन – निकोटिन का छिड़काव किया जा सकता हैं।
2. तना छेदक
यह कीट अगेती फसल के लिए बहुत हानिकारक हैं। यह कीड़ा मुलायम हरे तने तथा पीटिओल में छेद करके अंदर सुंरग बनाता हैं। जिससे पौधे सूखकर मर जाते हैं। वयस्क कीट पत्तियों को नुकसान पहुंचाता हैं। पत्तियाँ पीली तथा सूख जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए मटर को नवम्बर में बोना चाहिए तथा ट्राइजोफास 0.75-1.00 मि.ली./ली. पानी से सप्ताहिक अंतराल से दो बार छिड़काव करना चाहिए अथवा बीज का उपचार क्लोरपाईरीफास (5 मिली./कि.बीज) से करके बुबाई करनी चाहिए।
3. फली छेदक
इन कीटों की इल्लियां फली में छेद करके उसमें हरे दानों को खा जाती हैं। इसके लिए ट्राइजोफास 1.00 मि.ली./ली. या प्रोफेनोफास 0.75-1.00 मिली./ली. पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।
Source-
- Jawaharlal Nehru Krishi VishwaVidyalaya,Jabalpur(M.P.)