केला दुनिया भर में एक प्रमुख लोकप्रिय पौष्टिक खाद्य फल है। पके केलों का प्रयोग फलों के रूप में एवं कच्चे केले का प्रयोग सब्जी एवं आटा या चिप्स बनाने में होता है। केला लगभग 120 देशों में उगाई जाती है, इसकी कुल वार्षिक विश्व उत्पादन लगभग 88 मिलियन टन का अनुमान है तथा भारत लगभग 16.2 मिलियन टन के वार्षिक उत्पाद के साथ केले के उत्पादन में दुनिया का नेतृत्व करता है। अन्य प्रमुख निर्माता ब्राजील, यूकोडोर, फिलिपींस, इंडोनेशिया, कोस्टारिका, मैक्सिको, थाईलैंड और कोलंबिया है। यह एक प्रचुर पोषक फल है जिसमें फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, कॉपर, सल्फर, मॉलीब्लेडिनम, कैरोटीन, थाईमिन, नियासिन, विटामिन सी, फोलिक एसिड आदि तत्व पाए जाते हैं जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हैं। केला भारत मूल का फल है जो की उष्मीय उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में विकसित हुआ तथा इसकी आधुनिक दो किस्में हैं- मूसा एक्यूमिनता और मूसा बालबिसियाना एवं उनके प्राकृतिक शंकर मूल रूप से एशियाई वर्षा वनों में पाए जाते हैं। सातवीं शताब्दी के दौरान इसकी खेती मिस्र और अफ्रीका तक फैल गई। वर्तमान में भूमध्य रेखा के 300 उत्तर और 300 दक्षिण के बीच दुनिया के सभी गर्म कटिबंधीय क्षेत्रों में केले की खेती की जाती है।
केले का आर्थिक महत्व:-
कम कीमत और उच्च पोषक मूल्य के कारण केला बहुत लोकप्रिय फल है। इसका सेवन ताजा या पके हुए रूप में किया जाता है।फलों से चिप्स, केला प्यूरी, जैम, जेली, जूस, वाइन और हलवा जैसे प्रोसेस्ड प्रोडक्ट बनाए जा सकते हैं। निविदा तना, जो पुष्पक्रम को काटता है, जो कटी हुई स्यूडोस्टेम की पत्ती म्यान को निकालकर सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। पौधे या खाना पकाने के केले स्टार्च में समृद्ध होते हैं और आलू के समान एक रासायनिक संरचना होती है। यह पोटेशियम, फास्फोरस, कैल्शियम और मैग्नीशियम का भी एक अच्छा स्रोत है। फल वसा और कोलेस्ट्रॉल से मुक्त, पचाने में आसान है। केले के पाउडर का उपयोग पहले बच्चे के भोजन के रूप में किया जाता है। यह उच्च रक्तचाप, गठिया, अल्सर, आंत्रशोथ और गुर्दे की बीमारियों से पीड़ित होने पर हृदय रोगों के जोखिम को कम करने में मदद करता है। केले के इन सभी गुणों के कारण एवं सस्ता होने के कारण इसकी मांग बाजार में वर्षभर बनी रहती है।
केले की फसल हेतु उपयुक्त जलवायु एवं भूमि:-
केले के फसल के लिए अनिवार्य रूप से आद्र तथा गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। यह समुद्र तल से 1200 मीटर की ऊंचाई तक उग सकते हैं। इसके उत्पादन के लिए सामान्यतः 10 डिग्री सेल्सियस न्यूनतम और 40 डिग्री सेल्सियस उच्च आद्रता के तापमान को सही माना गया है, लेकिन इसका विकास 20 डिग्री सेल्सियस पर मंद हो जाता है और 35 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा होने पर कम हो जाता है। एक विशेष अवधि के लिए जब तापमान 24 डिग्री सेल्सियस के ऊपर हो जाता है पैदावार अधिक होती है। केले की फसल हेतु मिट्टी का चयन करने में मृदा की गहराई और जल निकासी दो सबसे महत्वपूर्ण घटक है। इसकी अच्छी उत्पादन हेतु खेत में मिट्टी 0.5 से 1 मीटर गहरी होनी चाहिए। मृदा में नमीधारण, उपजाऊ ऑर्गेनिक पदार्थ की प्रचुरता सहित, इसका पीएच सीमा 6.5 से 7.5 तक होनी चाहिए ।
केले की फसल हेतु प्रजातियाँ:-
●डवारफ कैवेंडिश (एएए):- केले की यह किस्म गुजरात, बिहार और पश्चिम बंगाल के राज्यों में व्यवसायिक किस्म है।इसके औसतन गुच्छे का वजन लगभग 15 से 25 किलोग्राम होता है जब फल पाता है तो फल की पतली चमड़ी कुछ हद तक हरे रंग की हो जाती है यह हल्की मिट्टी में अच्छा उत्पादन देता है उच्च घनत्व रोपण और ड्रिप सिंचाई के साथ यह किस्म अच्छा उत्पादन दे देती है ।
●रसथाली (लस्कएएबी):- केले की यह प्रजाति मुख्य रूप से तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक और बिहार में उगाई जाती है तथा यह मध्यम लंबी किस्म है। फल अपने विकास के द्वारा धीरे धीरे पीले होने लगते हैं तुरंत पकने के बाद पीले से सुनहरी पीले रंग में बदल जाता है यह स्वादिष्ट होने के साथ-साथ इसकी खुशबू भी अच्छी होती है।
●रोबस्टा(एएए):- यह एक अर्ध लंबी किस्म है जो मिलनाडु के अधिकांश क्षेत्रों में और कर्नाटक आंध्र प्रदेश तथा महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में उगाई जाती है अच्छे विकसित फल वाले बड़े आकार के गुछे पैदा करती है जिससे ऊपज ज्यादा होता है।जो कि वजन में 25 से 30 किलोग्राम होता है।मीठास व खुशबू अच्छी होती है। लीफ सपोर्ट रोग के प्रति अति संवेदनशील होती है यह लंबी दूरी में परिवहन हेतु उपयुक्त नहीं है।
●लाल केला (एएए):- लाल केले को बहुत ज्यादा पसंद किया जाता है यह केरल, तमिलनाडु में ज्यादा होती है वाणिज्य खेती तमिलनाडु से कन्याकुमारी तिरुनेलवेली जिला में प्रमुख रूप से होता है । इसके गुच्छे में 20 से 30 किलोग्राम वजन होता है यह फल मीठा नारंगी पीले रंग का और सुगंधित खुशबू देने वाला होता है या बंची टॉप, फियुजेरियम अमृत और निमृत के प्रति अति संवेदनशील है।
अन्य आकर्षक किस्में:- विरुपाकाशी(एएबी), पाचहानादेन(एएबी), मोंथन (एबीबी), नेयपूवन (एबी), करपराव्ली(एबीबी), सफेदव्ल्चीमुसा(एबीसमुह) आदि ।
केले की फसल के लिए खेत की तैयारी:-
समतल खेत को 4-5 गहरी जुताई करके भुर भूरा बना ले। इसके बाद लाइनों में रोपण हेतु गढढे बनाये। किस्मो के आधार पर गड्डो का निर्माण किया जाता है – जैसे हरी छाल के लिए 1.5 मीटर लम्बा 1.5 मीटर चौड़ा के तथा सब्जी के लिए 2-3 मीटर की दूरी पर, 50 सेंटीमीटर लम्बा, 50 सेंटीमीटर चौड़ा, 50 सेंटीमीटर गहरा।केले के लिए गढढे मई के माह में खोदकर 15-20 दिन खुला छोड़ दें, जिससे धूप आदि अच्छी तरह लग जाए। इसके बाद 20-25 किग्रा गोबर की खाद 50 ई.सी. क्लोरोपाइरीफास 3 मिली० एवं 5 लीटर पानी तथा आवश्यकतानुसार ऊपर की मिट्टी के साथ मिलाकर गढढे को भर देना चाहिए एवं गढ़ढो में पानी लगा देना चाहिए।
पौधों का रोपण :-
रोपण का सीजन- रोपण मई – जून या सितंबर – अक्टूबर में किया जाता है।
केले की रोपाई पटटा डबल लाइन विधि के आधार पर की जाती है। इस विधि में, दोनों लाइनों के बीच की दूरी 0.90 से 1.20 मीटर है। जबकि पौधे से पौधे की दूरी 1.2 से 2 मीटर है। इस रिक्ति के कारण, इंटरकल्चरल ऑपरेशन आसानी से किए जा सकते हैं और ड्रिप सिंचाई की लागत कम हो जाती है। हाल ही में किए गए प्रयोगों से पता चलता है कि रोपण दूरी 1.8 X 1.8 मीटर रखने से अच्छी गुणवत्ता वाले केले और भारी गुच्छा प्राप्त किए जा सकते हैं। हालांकि, अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए रोपण 1.2 X 1.5 मीटर पर किया जाता है। रोपण के तुरंत बाद खेत की सिंचाई कर देनी चाहिए।
केले की फसल हेतु खाद एवं उर्वरक:-
भूमि के उर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नत्रजन, 100 ग्राम फास्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है फास्फोरस की आधी मात्रा पौध रोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिए। नत्रजन की पूरी मात्रा 5 भागो में बाँटकर अगस्त, सितम्बर ,अक्टूबर तथा फरवरी एवं अप्रैल में देनी चाहिए पोटाश की पूरी मात्रा तीन भागो में बाँटकर सितम्बर ,अक्टूबर एवं अप्रैल में देना चाहिए।
पोषक तत्वों की कमी:-
●नाइट्रोजन :- सभी उम्र की पत्तियों के रंग पीले हरे हो जाते हैं देखने में मध्य रिप्स गुलाबी और रोजेट हो जाते हैं हल्की जड़ विकास वाले वृक्षारोपण में इस तरह के लक्षण दिखाई देते हैं वजन वाले कुछ और फल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। नियंत्रण:- सिंचाई द्वारा अपनाई गई यूरिया की प्रयुक्त 300 ग्राम प्रति पौधा देनी चाहिए।
●फास्फोरस:-पौधे हल्के जड़ विकास के साथ और अवरुद विकास को दर्शाते हैं। पुरानी पत्तियां कार्लिंग और हरे नीले रंग के टूटने को दर्शाता है।
नियंत्रण :- डीएपी की प्रयोग 50 ग्राम पौधा।
●पोटेशियम:- इसकी कमी होने वाले लक्षणों में पुराने पत्तियों का नारंगी पीला रंग मार्जिन के साथ इस्कोर्चिंग , कुलपट्टी द्वीप की कवरिंग आदि शामिल है पत्तियों की चौकी से फूल आने में देरी होती है इसकी वजह से फसल और गुणवत्ता में कमी आती है।
नियंत्रण:- पोटेशियम सल्फेट सॉल्यूशन 1% ।
●कैल्शियम:- इसकी कमी होने वाले लक्षणों में पति पलट का अभाव से सीमांत पट्टी की विकृति और नसों का उखड़ना शामिल है।
नियंत्रण:- सिंचाई द्वारा अपनाई गई नींबू की प्रयुक्तता में 50ग्राम प्रति पौधा ।
●सल्फेट:-इसकी कमी होने से पत्तियों की दिखावट पीली और सफेद पड़ जाती है पति मार्जिन पर परीगलित पेच, नसों का मोटा होना तथा विकास में अवरोध आता है जिससे गुच्छे छोटे और बंद हो जाते हैं।
नियंत्रण:-20ग्राम /पोधा ।
●बोरान :- इसकी कमी होने से पति एरिया का कम होना, पत्तियों में कर्लिंग लामिना विरूपण, सफेद धारियों का प्रकटन और जड़ और फल गठन पर निषेध शामिल है।
नियंत्रण:- पौधे के जड़ के आसपास मिट्टी में बोरेक्स नमक 25 ग्राम प्रति पौधा।
सिंचाई का समय:-
केले के खेत में नमी हमेशा बनी रहनी चाहिए। पौध रोपण के बाद सिचाई करना अति आवश्यक है आवश्यकतानुसार ग्रीष्म ऋतु 7 से 10 दिन तथा शीतकाल में 12 से 15 दिन के अन्तराल पर सिचाई करते रहना चाहिए मार्च से जून तक यदि केले के थालो पालीथीन बिछा देने से नमी सुरक्षित रहती है, सिचाई की मात्रा भी आधी रह जाती है साथ ही फलोत्पादन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
रोगों का नियंत्रण:-
केले की फसल में कई रोग कवक एवं विषाणु के द्वारा लगते है जैसे पर्ण चित्ती या लीफ स्पॉट ,गुच्छा शीर्ष या बन्ची टाप,एन्थ्रक्नोज एवं तनागलन हर्टराट आदि लगते है। इन रोग के लिए फंगल संक्रमण के मामले में 1% बोर्डो, कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या कार्बेन्डाजिम के साथ छिड़काव करने से सकारात्मक परिणाम मिले हैं।रोग मुक्त रोपण सामग्री का उपयोग किया जाना चाहिए और संक्रमित पौधे भागों को नष्ट कर दिया जाना चाहिए।इनके नियंत्रण के लिए कुछ रसायन जैसे कापर आक्सीक्लोराइट 0.3% का छिडकाव करना चाहिए या मोनोक्रोटोफास 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के साथ छिडकाव करना चाहिए।
किट नियंत्रण:-
केले में कई कीट लगते है जैसे केले का पत्ती बीटिल (बनाना बीटिल),तना बीटिल आदि लगते है नियंत्रण के लिए मिथाइल ओ -डीमेटान 25 ई सी 1.25 मिली० प्रति लीटर पानी में घोलकर करे या कारबोफ्युरान अथवा फोरेट या थिमेट 10 जी दानेदार कीटनाशी प्रति पौधा 25 ग्राम प्रयोग करें। कीटों को नियंत्रित करने में कीटों के नियंत्रण के लिए 0.04% एंडोसल्फान, 0.1% कार्बेरिल या 0.05% मोनोक्रोटोफॉस के उपयोग उपयुक्त इंटरकल्चरल ऑपरेशनों का चयन प्रभावी पाया गया है।
तैयार फल की कटाई:-
फसल रोपण के 12-15 महीने के भीतर फसल के लिए तैयार हो जाती है और केले की मुख्य कटाई का मौसम सितंबर से अप्रैल तक होता है।विभिन्न प्रकार, मिट्टी, मौसम की स्थिति और ऊंचाई के आधार पर फूल आने के 90-150 दिनों के बाद परिपक्वता प्राप्त करते हैं। जब फलियाँ की चारो घरियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेकर पीली होने लगे तो फल पूर्ण विकसित होकर पकने लगते है इस दशा पर तेज धार वाले चाकू आदि के द्वारा घार को काटकर पौधे से अलग कर लेना चाहिए। कटे हुए गुच्छा को आमतौर पर अच्छी तरह से गद्देदार ट्रे या टोकरी में एकत्र किया जाना चाहिए और संग्रह स्थल पर लाया जाना चाहिए। स्थानीय खपत के लिए, हाथों को अक्सर डंठल पर छोड़ दिया जाता है और खुदरा विक्रेताओं को बेच दिया जाता है।
केले को पकाने की विधि:-
केले को पकाने के लिए गुच्छे को किसी बन्द कमरे में रखकर केले की पत्तियों से ढक देते है।और कमरे में अगीठी जलाकर रख देते है और कमरे को मिट्टी से सील बन्द कर देते है यह लगभग 48 से 72 घण्टे में कमरें में रखा केला पककर तैयार हो जाता है।
केले का उपज :-
केले की किस्म – उपज (टन/हेक्टेअर)
●डवारफ कैवेंडिश – 35-40
●रोबस्टा – 38-45
●अन्य किस्म – 25-30