कठिया Durum गेहूं की खेती
दुनियाभर के बाजार में कठिया गेहूं की मांग तेजी से बढ़ रही है, कठिया गेहूं में पोषक तत्वों की मात्रा अधिक होने एवं उधोगों में अधिक मांग होने की वजह से इसके भाव भी अच्छे मिलते हैं | कठिया durum गेंहूँ की खेती प्रायः असिंचित दशा में की जाती थी जिससे पैदावार भी अनिश्चित रहती थी तथा प्रजातियाँ लम्बी, बीमारी से ग्रसित, कम उर्वरक ग्रहण क्षमता व सीमित क्षेत्र में उगायी जाती थी | आज प्रकृति ने मध्य भारत को कठिया गेंहूँ उत्पादन की अपार क्षमता प्रदान की है | मालवा, गुजरात का सौराष्ट्र और कठियावाड, राजस्थान का कोटा, मालवाड तथा उदयपुर, उत्तर प्रदेश का बुन्देलखण्ड में गुणवत्ता युक्त नियतिक गेंहूँ उगाया जाता है |
काठियां गेंहूँ आद्योगिक उपयोग लिए अच्छा माना जाता है इससे बनने वाले सिमोलिन (सूजी/रवा) से शीघ्र पचने वाले व्यंजन जैसे पिज्जा, स्पेघेटी, सेवेइया, नूडल, वर्मीसेली आदि बनाये जाते है | इसमें रोग अवरोधी क्षमता अधिक होने के कारण इसके निर्यात की अधिक संभावना रहती है |भारत वर्ष में कठिया गेंहूँ की खेती लगभग 25 लाख हेक्टेर क्षेत्रफल में की जाती हैं | मुख्यतः इसमें मध्य तथा दक्षिण भारत के उष्ण जलवायुविक क्षेत्र आते है | भारत वर्ष में कठिया गेंहूँ ट्रिटिकम परिवार में दुसरे स्तर का महत्वपूर्ण गेंहूँ है | गेंहूँ के तीनों उप-परिवारों (एस्टिवम, डयूरम, कोकम) में कठिया गेंहूँ क्षेत्रफल में एवं उत्पादन में द्वितीय स्थान प्राप्त फसल है |
कठिया गेहूं से कम सिंचाई में अधिक उत्पदान
गेंहूँ की किस्म में सुखा प्रतिरोधी क्षमता अधिक होती है | इसलिए 3 सिंचाई ही पर्याप्त होती है जिससे 45-50 क्विंटल/ हैक्टेयर पैदावार हो जाती है | वहीं सिंचित दशा में कठिया प्रजातियों औसतन 50-60 कु./हे. पैदावार तथा असिंचित व अर्ध सिंचित दशा में इसका उत्पादन औसतन 30-35 कु./हे. अवश्य होता है | कठिया गेंहूँ से खाद्यान्न सुरक्षा तो मिली परन्तु तत्वों में शरबती (एस्वीटवम) की अपेक्षा प्रोटीन 1.5-2.0 प्रतिशत अधिक विटामिन ‘ए’ की अधिकता बीटा कैरोटीन एवं ग्लुटीन पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है | कठिया गेंहूँ में गेरुई या रतुआ जैसी महामारी का प्रकोप तापक्रम की अनुकूलतानुसार कम या अधिक होता है | नवीन प्रजातियों का उगाकर इनका प्रकोप कम किया जा सकता है |
बुआई :
असिंचित दशा में कठिया गेंहूँ की बुआई अक्टूबर माह के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर से प्रथम सप्ताह तक अवश्य कर देनी चाहिए | सिंचाई अवस्था में नवम्बर का दूसरा एवं तीसरा सप्ताह सर्वोत्तम समय होता |
उन्नत एवं विकसित किस्में/प्रजातियाँ :
सिंचित दशा हेतु :
मालव श्री (एच.आई. 8381), मालव शक्ति (एच.आई. 8498), पोषण (एच.आई. 8663), पूसा मंगल (एच.आई.-8713), पूसा अनमोल (एच.आई.-8737), पी.डी.डब्लू. 34, पी.डी.डब्लू. 215, पी.डी.डब्लू. 233, राज 1555, डब्लू. एच. 896, जी.डब्लू. 190, जी.डब्लू. 273, एम.पी.ओ. 1215, एम.पी.ओ. 1106 (सुधा), एम.पी.ओ. 1255, अमृता (एच.आई.-1500) चंदौसी/शरबती, हर्षिता (एच.आई. 1531) शरबती, नवीन चंदौसी/शरबती (एच.आई.- 1418), पूसा तेजस (एच.आई.-8759)
असिंचित दशा हेतु :
आरनेज 9-30-1, मेघदूत, विजगा यलो जे.यू.-12, जी.डब्लू. 2, एच.डी. 4672 (मालवा रतन), सुजाता, एच.आई. 8627 (मालवा कीर्ति),
खाद/उर्वरकों की मात्रा का प्रयोग :
संतुलित उर्वरक एवं खाद का उपयोग दानों कर क्षेष्ट श्रेष्ठ गुण तथा अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए अति-आवश्यक है | अतः 120 किग्रा. नत्रजन (आधी मात्रा जुताई के साथ) 60 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर सिंचाई दशा में पर्याप्त है | इसमें नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद टापड्रेसिंग के रूप में प्रयोग करना चाहिए | असिंचित दशा में 60:30:15 तथा अर्ध असिंचित में 80:40:20 के अनुपात में नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश करना चाहिए |
कठिया गेहूं में सिंचाई :
सिंचाई सुविधानुसार करनी चाहिए | अर्धसिंचित दशा में कठिया गेंहूँ की 1-2 सिंचाई, सिंचाई दशा में तीन सिंचाई पर्याप्त होती है |
- पहली सिंचाई बुआई के – 25-30 दिन ताजमूल अवस्था
- दूसरी सिंचाई बुआई के – 60-70 दिन पर दुग्धावस्था
- तीसरी सिंचाई बुआई के – 90-100 दिन पर दाने पड़ते समय
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