काबुली चना की खेती
भारत में देसी चना (कत्त्थई से हल्का काला) की खेती बहुत समय से की जा रही है वही आजकल बाजार में मांग बढ़ने के साथ काबुली चने की खेती की तरफ भी किसानों का रुझान काफी बढ़ा है | काबुली चने का दाना सफ़ेद (हल्के बादामी रंग) एवं साइज़ में देसी चने से अपेक्षाकृत बड़ा होता हैं | देश में कई राज्यों के किसान चने की खेती कर रहे हैं, काबुली चना का किसानों दाम भी बाजार में अच्छा मिल जाता है | किसानों को काबुली चना की अधिक पैदावार प्राप्त करने हेतु निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है |
- भूमि का चुनाव एवं तैयारी
- काबुली चने की उन्नत एवं विकसित किस्में
- बुआई की विधि एवं समय
- बीजोपचार
- खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
- सिंचाई
- खरपतवार नियंत्रण
- चने में लगने वाले रोग एवं उनका नियंत्रण
- काबुली चना में कीट नियंत्रण
- फसल कटाई एवं सुरक्षित भण्डारण भण्डारण
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
काबुली चने के अधिक उत्पदान के लिए बलुई दोमट से लेकर दोमट तथा मटियार मिट्टी जिसमें उचित जल निकासी का प्रबंधन हो काबुली चना के लिए वरदान साबित होती है | इसकी खेती के लिए मार, पडुआ, कछारी जहाँ पानी नहीं भरता हो, मृदा उपयुक्त मानी जाती है | हल्की ढलान वाली भूमि में खेती के लिए अच्छी होती है एवं ढेलेदार मिट्टी में भी काबुली चने की भरपूर पैदावार ली जा सकती है |
भूमि की तैयारी
खेत में मिट्टी को भली–भांति बखरने के बाद खेत की तैयारी की जाती है | खेत की मिट्टी बहुत अधिक महीन नहीं होनी चाहिए और न ही बहुत अधिक दबी हुई | जड़ों की ठीक से वृद्धि के लिए खेत की गहरी जुताई करना लाभदायक होती है |इसके लिए खरीफ की फसल काटने के बाद एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए | इसके बाद दो या तीन जुताई देसी हल से करनी चाहिए | बड़े ढेलों को छोटे–छोटे भागों में तोड़ने तथा खेत में समतल बनाने के लिए पाटा लगाना चाहिए | क्षारीय तथा उच्च भूमिगत जल वाले खेतों का चयन काबुली चना की बुवाई के लिए न करें क्योंकि चना की पैदावार में प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है |
काबुली चने की उन्नत एवं विकसित किस्में
किसी भी फसल का उत्पादन उस फसल के प्रजातीय पर निर्भर करता है | बहुत सी ऐसी प्रजाति विकसित हो चुके हैं जो रोग प्रतिरोधक होते हैं | मौसम तथा भूमि के अनुसार प्रजाति का चयन करना चहिये | किसान अपने जिले के अनुसार उपयुक्त प्रजाति की जानकारी अपने जिले के कृषि विज्ञानं केंद्र से ले सकते हैं | काबुली चना की विकसित प्रजातियाँ इस प्रकार है |
पूसा शुभ्रा (बी.डी.जी. 128), जे.जी.के.2, जे.जी.के.3 (जेएस.सी.19) ,गौरी, (जी.एन.जी. 1499 के),आई.पी.सी.के 2004 – 29, फुले जी 0517, पी.के.वी. काबुली 4, पंत काबुली चना 1, राज विजय काबुली चना 101, एम.एन.के.1, एच.के. 05 – 169, सी.एस.जे.के. 6, जे.एल.के. 26155, फुले जी 0027 , जी.एन.जी. 1969, जी.एल.के. 28127, वल्लभ काबुली चना 1, जे.जी.के. 5, एन. बीइ.जी. 119, पंत काबुली चना 2
बुआई की विधि एवं समय
बुवाई सीड ड्रिल द्वारा करनी चाहिए ताकि पंक्ति एवं बीज की उचित दुरी बनी रहे एवं उचित प्रबंधन किया जा सके | खेत में पर्याप्त नमी का होना अतिआवश्यक होता है | काबुली चना की अच्छी उपज के लिए खेत में पौधों की समुचित संख्या होनी चाहिए | पौधों की संख्या 25 से 30 प्रति वर्ग मीटर रखी जाती है | पंक्तियों (कुंड़ो) की बीच की दुरी 30–45 से.मी. तथा पौधों से पौधों की दुरी 8–10 से.मी. रखी जाती है | असिंचित तथा पिछेती बुवाई की स्थिति में कुंडसे कूंड की दुरी 30 से.मी. तथा सिंचित दशा, काबर या भूमि में कूंडो के बीच की दुरी 45 से.मी. रखनी चाहिए | देश के उत्तर–पश्चिम भागों में जहाँ काबुली चना 150–160 दिन में पककर तैयार होता है, प्रति वर्ग मीटर में पौधा की संख्या 22–25 होनी चाहिए |
बुवाई का समय
असिंचित अवस्था में काबुली चना की बुवाई का उचित समय अक्टूबर का दूसरा अथवा तृतीय सप्ताह है | सिंचित अवस्था में काबुली चना की बुवाई नंबर के दुसरे सप्ताह तक अवश्य कर देनी चाहिए उत्तर भारत में चना की खेती धान की फसल कटने के बाद भी की जा सकती है, ऐसी स्थित में बुवाई नंबर के प्रथम सप्ताह तक कर लेनी चाहिए | बुवाई में अधिक विलम्ब करने पर पैदावार में कमी हो जाती है, साथ ही काबुली चना में फली भेदक का प्रकोप होने की संभावना रहती है | दक्षिण भारत में काबुली चना की फसल उत्तर भारत की तुलना में जल्दी हो जाती है, अत: बुवाई जल्दी की जाती है | देश के मध्य भाग में अक्टूबर का प्रथम तथा दक्षिण राज्यों में सितबर का अंतिम सप्ताह तथा अक्टूबर का प्रथम सप्ताह काबुली चना की बुवाई के लिए अच्छा माना गया है |
बीज दर
काबुली चना के अधिक उत्पादन हेतु प्रति हेक्टेयर बीज की उचित मात्रा का होना आवश्यक है | काबुली चना के बीज की भी मात्रा दानों के आकार (भार), बुवाई का समय एवं विधि और भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है | छोटे दानों की प्रजातियों की बीज दर 70–75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा बड़े दानों की प्रजातियों की बीज दर 80–90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखने से उचित पादप संख्या प्राप्त की जा सकती है | जिससे प्रति हेक्टेयर 15–20 क्विंटल की उपज प्राप्त होती है |
बीजोपचार
काबुली चना के बीज को निम्नलिखित दो विधियों से उपचारित किया जाता है |
- रोग एवं कीटनाशी रसायनों से बीजोपचार
- उकठा एवं जड़ विगलन रोग से फसल के बचाव हेतु 2.5 ग्राम थीरम या 1 से 1.5 ग्राम थीरम तथा 0.5 ग्राम बाविस्टीन के मिश्रण से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करना चाहिए | जिन क्षेत्रों में दीमक का प्रकोप अधिक होता है, उन खेतों में 20 ई.सी. क्लोरिपयरिफास को पानी में घोलकर बीज को उपचारित करके बोना चाहिए |
विभिन्न दलहनों के लिए अलग–अलग स्तर का राईजोबियम कल्चर होता है | अत: चना के बीजों को उपचारित करने के लिए संस्तुत राईजोबियम कल्चर का ही प्रयोग करना चाहिए | एक पैकेट कल्चर (200 ग्राम) 10 किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त होता है | 100 ग्राम गुड को आधा लीटर पानी में घोल लेना चाहिए | घोल को गर्म करके ठंडा करके इसमें एक पैकेट खरपतवार को अच्छी तरह मिला देना चाहिए | बाल्टी अथवा मिट्टी के घड़े में 10 किलोग्राम बीज डालकर घोल में मिला दें ताकि राईजोबियम कल्चर बीज की स्थ पर भली – भांति चिपक जाएं |
इस प्रकार राईजोबियम कल्चर से सने हए बीजों को कुछ देर के लिए छांव में सुखा लेना चाहिए | जहाँ तह संभव हो बेजोपचार शाम के समय में ताकि तेज धुप में बीजों के सूखने की संभावना न रहे | धुप में बीजों को सुखाने से राईजोबियम जीवाणु मर जाते हैं, जिससे वांछित लाभ की प्राप्त नहीं होता है | राईजोबियम कल्चर की भांति ही फास्फेट घुलनशील बैक्टरिया (पी.एस.बी.) के पैकेट भी उपलब्ध रहते हैं | जिन्हें बाजार एवं नजदीक कृषि विश्वविध्यालय से खरीदा जा सकता है |
काबुली चने में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
जिस खेत में काबुली चना बोना हो उसे खेत की मिट्टी का रासायनिक परीक्षण करवाना चाहिए | ऐसा करने से सूक्षम एवं वृहत रासायनिक खादों की प्रतिशत मात्रा का पता चल जाता है | यदि भूमि की उर्वरा शक्ति अधिक हो अथवा खेतों में पूर्व फसल को अधिक मात्रा में उर्वरक दिये गये हों, वहाँ उर्वरक की मात्रा परिस्थिति के अनुसार घटाई या बढाई जा सकती है | काबुली चना के पौधों की जड़ों में पायी जाने वाली ग्रन्थियों में नत्रजन स्थिरीकरण जीवाणु पाए जाते हैं | जो वायुमंडल से नत्रजन अवशेषित कर लेते हैं | इस नत्रजन का उपयोग पौधे अपने वृद्धि में करते हैं |
सामान्य दशा में चना की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 20 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए | खेत में सूक्षम तत्वों की कमी होने पर जिंक सल्फेट (जस्ता) 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तथा बोरान एवं मालिब्ड़ेटकी कमी होने पर क्रमश: 10 किलोग्राम बोरेक्स पौडर व 1.5 किलोग्राम अमोनिया माँलिब्डेट प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर काबुली चना के उत्पादन में वृद्धि होती है |
काबुली चने में सिंचाई
चना के अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई का उचित प्रबंधन होना चाहिए | काबुली चना की खेती असिंचित क्षेत्रों में की जाती है, परंतु यदि पानी की सुविधा हो तो फली बनते समय एक सिंचाई अवश्य करनी चाहिए | सिंचित क्षेत्रों में पहली सिंचाई, बुवाई के 45–60 दिनों बाद शाखाएं बनते समय तथा दूसरी सिंचाई आवश्यकतानुसार फलियों में दाना बनते समय की जानी चाहिए यदि शरद कालीन वर्षा हो जाए तो दूसरी सिंचाई की आवश्यकता नहीं पडती है | यह विशेष ध्यान रहे कि जब काबुली चना के पौधों में वानस्पतिक वृद्धि अधिक न हो, इसके लिए उचित समय पर सिंचाई करनी चाहिए | फब्वारा विधि को अपनाकर 25–30 प्रतिशत तक अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है एवं जल की बचत भी होती है |
खरपतवार नियंत्रण
काबुली चना की उपज विभिन्न खरपतवारों से प्रभावित होती है | अत: खेत से खरपतवार निकाल देने या उनके नियंत्रण से भरपूर उपज प्राप्त होती है | खरपतवार नियंत्रण से खेत में डाले गये खाद एवं उर्वरकों का उपयोग चना के पौधों द्वारा होने से उपज में वृद्धि होती है तथा पौधों में समुचित मात्रा में वायु–संचार होता है |
- बुवाई के 30–35 दिन बाद पहली निराई व गुडाई कर खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए | दूसरी निराई या गुडाई 60–65 दिन बाद करनी चाहिए |
- पेंडीमेथालिन 1.00 – 1.25 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर को 700 – 800 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरंत बाद (72 घंटे के अंदर) छिडकाव करने से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं | खेत में उपरी सतह में नमी होने पर खरपतवार नाशी रसायन अधिक प्रभावशाली होता है | छिडकाव धुप होने पर करना ज्यादा अच्छा होता है |
शीर्ष शखाओं को तोड़ना (खुटाई)
जब चना के पौधे लगभग 20–25 से.मी. के हो जाएं अर्थात पौधों में फुल आने से पहले की अवस्था हो, तब शाखाओं के उपरी भाग तोड़ देना चाहिए | ऐसा करने से पौधों में अधिक शाखायें निकलती हैं | फलस्वरूप काबुली चना की उपज में वृद्धि होती है | शीर्ष शखाएं तोड़ने की प्रक्रिया असिंचित क्षेत्रों में नहीं की जाती है क्योंकि अत्यधिक शाखाओं और पत्तियों के होने से वास्पीकरण बढ़ जाता है, जिससे भूमि में नमी की कमी हो जाती है तथा फसल को सूखने की स्थिति का सामना करना पड़ता है | जिसके फलस्वरूप उत्पादन में कमी आ जाती है |
चने में लगने वाले रोग एवं उनका नियंत्रण
काबुली चना के फसल उत्पादन को प्रभावित करने वाले जैविक कारकों में रोग प्रमुख होते हैं | अत: इनकी पूरी जानकारी एवं रोकथाम करके काबुली चना की अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है | कुछ विशेष रोगों का फसल पर प्रकोप एवं इनकी रोकथाम का विवरण निम्नवत है |
उकठा रोग
इस रोग का निरिक्षण पौधों में दो अवस्थाओं में किया जा सकता है | प्रथम अवस्था में बुवाई के बाद 30 दिनों तक तथा दूसरी अवस्था में बुवाई के 40 दिनों के बाद | इस रोग के कारण पौधों कोई पत्तियों में पीलापन उत्पन्न होने लगता है जिस कारण रोगी पौधा सुख जाता है |
नियंत्रण
- बुवाई अक्टूबर माह के अंत या नंबर माह के प्रथम सप्ताह में आवश्य कर लेनी चाहिए |
- गर्मी के मौसम में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए |
- बीज को फफूंदी रसायन से नाशक से शोधित करके बोना चाहिए | इसके लिए वीटावेक्स 1 ग्राम को 4 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए |
शुष्क मूल विगलन
यह मृदा जनित रोग है | यह रोग राईजोक्तोनिया बटाटिकोला नमक कवक से होता है | इस रोग का प्रकोप पौधों में फुल आने एवं फलियाँ बनते समय होता है | रोग से प्रभावित पौधों की जड़ अविकसित तथा काली होकर सड़ने लगती है और आसानी से टूट जाती है | जड़ों के दिखायी देने वाले भागों एवं तनों के आंतरिक भाग में छोटे काले रंग की फफूंदी देखी जा सकती है |
नियंत्रण : उकठा रोग की तरह नियंत्रण विधि का प्रयोग करना चाहिए | यदि समय पर सिंचाई कर ली जाये तो इस रोग पर नियंत्रण हो सकता है |
धूसर फफूंद
यह रोग पौधों में फुल एवं फली के विकसित होने पर अनुकूल वातावरण में आता है | अधिक आद्रता होने पर भूरे या काले भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं | फुल झड जाते हैं एवं रोग ग्रसित पौधों में फलियाँ नहीं बनती हैं | शाखाओं या तनों में जहाँ फफूंद के काले धब्बे आ जाते हैं वहाँ पर पौधा गल कर मर जाता है |
नियंत्रण
- बीज को बोने से पीले उचित कवकनाशी जैसे थीरम रसायन से बीज का शोधन करना चाहिए |
- बुवाई के समय पंक्तियों की बीच की दुरी अधिक रखनी चाहिए |
- प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग करना चाहिए |
- कवकनाशी रसायन जैसे मेंकोजेब 720 ग्राम प्रति लीटर , कार्बेन्डाजिम 500 प्रति लीटर का छिडकाव प्रभावित पत्तियों पर करना चाहिए |
स्तम्भ मूल संधि विगलन
इस रोग का प्रकोप प्राय: सिंचित क्षेत्रों अथवा बुवाई के समय मृदा में नमी की अधिकता एवं तापमान 300 सेंटीग्रेट के आस–पास होने पर होता है | अंकुरण से लेकर एक या देश महीने की अवस्था तक पौधे पीले होकर मर जाते हैं | तने के सड़े भाग से जड़ तक सफेद फफूंद एवं कवक के जाल पर राई के दाने के आकार के फफूंद के बीजाणु दिखाई देते हैं |
नियंत्रण
- बीज को शोधित करके बोना चहिये |
- बुवाई एवं अंकुरण के समय मृदा में अधिक नमी होनी चाहिए |
काबुली चना में कीट नियंत्रण
काबुली चना के फसल उत्पादन को प्रभावित करने वाले जैविक कारकों में कीट प्रमुख होते हैं | अत: इनकी पूरी जानकारी एवं रोकथाम करके काबुली चना की अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है | कुछ विशेष कीटों का फसल पर प्रकोप एवं इनकी रोकथाम का विवरण निम्नवत है |
चना फली भेदक
चना फली भेदक यह कीट काबुली चना की उत्पादन क्षमता को बहुत प्रभावित करता है | इस कीट की गिडारें फलियों के अंदर घुसकर पहुंचाती है | फलियों को ध्यान से देखने पर फलियों में छिद्र दिखायी देने लगते हैं | जब नर कीटों की संख्या (यौन आकर्षण जाल) में 4–5 तक कीट प्रति रात्रि प्रति ट्रैप पहचाने लगे तो यह अनुमान लगाना चाहिए की जब कीट के नियंत्रण का समय आ गया है | खड़ी फसल 10–20 सुंडी एक मीटर लम्बी प्रति पंक्ति में या प्रति 10 पौधों के मिलने लगे तो अविलम्ब फसल सुरक्षा उपायों की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए |
एकीकृत कीट प्रबंधन
इस जाल में मादा मृदा कीट की कृतिम गंध रख दी जाती है जिससे नर कीट आकर्षित होकर फंस जाते हैं | जाड़े के उपरांत जब 5–6 नर कीट लगातार फंसते रहे तो यह अनुमान लग जायेगा की इस कीट के प्रकोप का प्रारम्भ एक पखवारे के बाद होने की संभावना है |यह जाल आर्थिक दृष्टि से अच्छा एवं सुगम भी है | एक हेक्टेयर के लिए 5 – 6 यौन आकर्षण जाल पर्याप्त है |
कीटनाशक रसायन
चना फली भेदक का प्रकोप कम करने के लिए कीटनाशक रसायन भी उपलब्ध है, जैसे इंडोक्साकार्प – 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर, रैनेक्सिपर -5 मि.ली.प्रति लीटर पानी में मिलाकर , लेम्डा साईंहेलोथ्रिल -1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर, स्पाईनोसेड 0.4 – 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करना चाहिए | परंतु इनका प्रयोग तभी करना चाहिए जब चना फली भेदक कीटों की संख्या आर्थिक हानि की अवस्था से अधिक हो जाये | यदि संभव हो तो नीम की निबौली का सत या नीम आधारित रसायनों का प्रयोग करना चाहिए | कुछ कीटनाशी जैसे एसीफेट 0.042% मोनोक्रोटोफास 0.04% आदि परजीवी को कम हानि पहुंचाते हैं |
दीमक
दीमक फसल में पौधों की जड़ों को काट कर उसके अंदर रहती है | यह भी देखा गया है कि रोग–ग्रसित पौधे के ऊपर भी दीमक मिट्टी की सुरंग नुमा आकार बनाकर उसके भीतर रहती है |
नियंत्रण
- क्लोरोपारीफास नामक कीटनाशक रसायन (20 ई.सी.) की एक लीटर मात्रा प्रति 100 किलोग्राम बीज की दर से बीज का शोधन करना चाहिए |
- खड़ी फसल में 0.05 प्रतिशत क्लोरोपायरीफास के घोल को पौधों के जड़ों के पास छिडकाव करने से दीमक का नियंत्रण किया जा सकता है |
कटुआ
इस कीट के प्रकोप से उत्तर एवं उत्तर पूर्वी भारत के कई क्षेत्रों में चना की फसल में हानि होती है | जिन क्षेत्रों में बुवाई से पूर्व बरसात का पानी भरा रहता है वहन विशेष रूप से इस कीट का प्रकोप अधिक होता है | भारी मिट्टी में भी इस कीट का प्रभाव स्पष्ट दिखने को मिलता है | इस कीट की गिडरें चिकनी, लचीली एवं दिखने में हल्के स्याह या भूरे रंग की तेलयुक्त होती है | इस कीट का विशिष्ट लक्षण यह होता है की यह रात में पौधों को जमीन की स्थ से काट देता है |
नियंत्रण
- कटुआ कीट के नियंत्रण के लिए निम्न उपायों का पालन करना चाहिए |
- क्लोरोपरिफास नमक कीटनाशक रसायन (20 ई.सी.) की एक लीटर मात्रा प्रति 100 किलोग्राम बीज की दर से बीज का शोधन करना चाहिए |
फसल कटाई एवं सुरक्षित भण्डारण भण्डारण
उपरोक्त समस्त सस्य विधियों का अनुसरण करने के पश्चात फसल परिपक्वता की स्थति में आ जाती है | चना की फसल की कटाई विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु, तापमान, आद्रता एवं दानों में नमी के अनुसार विभिन्न समयों पर होती है | सामान्य रूप से जब पौधों से पत्तियाँ झड जाती है या पिली या हल्की भूरी हो जाती है, फसल की कटाई कर ली जाती है | काबुली चना के लिए यह समय बहुत संवेदनशील मन जाता है क्योंकि फसल की परिपक्वता का अनुमान पत्तियों एवं दानों की स्थिति पर निर्भर करता है |
इसके लिए फली दाना निकालकर दांत से काटा जाये और कट की आवज आये तो अनुमान लग जायेगा की फल पूर्ण रूप से पक चूका है | यह भी ध्यान देना चाहिए की फसल के अधिक पकने से फलियाँ टूटकर मिट्टी में गिर जाती है जिससे उत्पादन पर असर पड़ता है | काटी गयी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में 4 – 5 दिन तक सुखा कर मड़ाई की जाती है | मड़ाई थ्रेसर, मशीन अथवा ट्रैक्टर को पौधों के ऊपर चलाकर की जाती है |
भंडारण
अलग – अलग बोरों में भरे गए काबुली चना सुरक्षित ढंग से भंडारणों में रखा जाता है | भंडारण के लिए चना के दानों में लगभग 10 प्रतिशत नमी होनी चाहिए | यह विशेष ध्यान देने योग्य है की जिस भंडारण या स्टोर में फसल को भण्डारित किया जाना है वह नमी रहित होना चाहिए, साथ ही साथ घुन रहित भी होना चाहिए | घुन से काबुली चना को बहुत हानि होती है यह भी ध्यान देना आवश्यक है की भंडारण गृह में वायु का प्रवेश नहीं होना चाहिए | सुरक्षित भंडारण के लिए मिट्टी के कुठलों या स्टील के कुठलों का प्रयोग करना लाभदायक होता है |
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